हर मास की अन्तिम तिथि पूर्णिमा कहलाती है। इस दिन चन्द्र देव अपनी सोलह कलाओं सहित आकाश में उपस्थित होते है। यह तिथि व्रत-पूजा, तीर्थ यात्रा तथा पवित्र नदियों में स्नान के लिये अति शुभ मानी जाती है।
पूर्णिमा भगवान विष्णु की प्रिय तिथि है, इसलिये इस दिन भगवान विष्णु की पूजा की जाती है। इस दिन भगवान विष्णु के सत्यनारायण रूप की पूजा की जाती है। भगवान विष्णु का यह रूप मनुष्य को सत्य का पालन करना सिखाता है।
जो मनुष्य कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी सत्य का मार्ग नही छोड़ते, सत्य देव उन्हें अवश्य सुफल देते है तथा उन पर अपनी कृपा की वर्षा करते है।
सत्यनारायण भगवान के व्रत की कथा पाँच अध्यायों में विभाजित है।
कथा तथा व्रत विधि नीचे दी जा रही है।
सत्य नारायण व्रत कथा
प्रथम अध्याय
एक समय नैमिषारण्य तीर्थ में शौनकादि अट्ठासी हज़ार ऋषि-मुनि एकत्र हुए। उन्होने वेदों के महान ज्ञाता श्री सूत जी से प्रश्न किया कि कलयुग में मनुष्य का उद्धार किस प्रकार होगा।
वे सभी सूत जी से कोई ऐसा उपाय जानने की इच्छा प्रकट करते है, जिससे मनुष्य को सरलता से प्रभु की कृपा प्राप्त हो सके तथा मनोकामनाएं पूर्ण हो सकें।
सूत जी उत्तर देते है, कि हे मुनियों, ऐसा ही प्रश्न एक बार नारद जी ने भगवान विष्णु से किया था, तब श्री हरि विष्णु जी ने नारद जी को जो उत्तर दिया था वह मैं आप सभी को बताता हूँ।
एक बार ब्रह्मांड का भ्रमण करते हुए नारद जी मृत्युलोक में आये। यहाँ आ कर उन्होने अनुभव किया कि सभी मनुष्य किसी न किसी कारण से दुखी है। उन्होने मन में विचार किया कि कलयुग की छाया के कारण मनुष्य सत्कर्मों से दूर हो रहे है तथा पाप कर्मों में लिप्त हो रहे है, इसी कारण अपने कर्म फल प्राप्त करके सब दुखी है।
नारद जी ने सोचा कि किस प्रकार इनको दुखो से मुक्त किया जा सकता है। यह प्रश्न मन में लेकर नारद जी क्षीर सागर में भगवान विष्णु के दर्शन करने पहुँचे।
उन्होने विष्णु जी को प्रणाम किया तथा उनसे कहा, हे प्रभु! मृत्युलोक में कलयुग के इस काल में मनुष्य अपने कर्मफ़ल के कारण बहुत दुख भुगत रहे है, क्या उनके दुखों को नष्ट करने का कोई उपाय नही है? क्या कोई ऐसा सरल उपाय है, जो शीघ्रता से उनके कष्ट दूर कर सके?
भगवान विष्णु बोले, हे नारद! स्वर्ग लोक तथा मृत्युलोक में एक सबसे उत्तम व्रत है, जो मैं तुमसे कहता हूँ, सत्य नारायण का व्रत करने से मनुष्य को सभी सुखों की प्राप्ति होती है, तथा मृत्यु के उपरांत मोक्ष को प्राप्त होते।
नारद जी बोले, भगवन! इस व्रत की विधि क्या है, इसका क्या फल प्राप्त होता है, तथा अब तक इस व्रत को किन-किन मनुष्यों ने किया है? मैं सब कुछ विस्तार से जानना चाहता हूँ, कृप्या मुझे इस का ज्ञान दीजिये।
विष्णु जी बोले, हे नारद! दुख, शोक तथा कष्टों को हरने वाला यह व्रत जीवन की सभी कठिनाइयों पर विजय प्राप्त करवाता है। भाई-बंधुओं के साथ सन्ध्या के समय सत्यनारायण भगवान की पूजा करे। भोग सामग्री के लिये दूध, दही, घी, गेहूँ का आटा लें। यदि यह संभव न हो तो साठी का आटा तथा गुड़ लें।
भगवान की पूजा करने के उपरांत इन सभी सामग्रियों का भोग लगायें तथा ब्राह्मणो तथा बंधुओं आदि सभी को भोजन करायें। भजन, कीर्तन, नृत्य, गीत आदि करते हुए भगवान सत्यनारायण की भक्ति में लीन हो जाएं। इस प्रकार यह व्रत करने पर मनुष्य की सभी कामनाएं पूर्ण होती है तथा सद्गति को प्राप्त होता है।
द्वित्तीय अध्याय
सूत जी ऋषियों से कहते है, कि अब वह भगवान विष्णु द्वारा वर्णित आगे की कथा सुनाते है, कि प्राचीन काल में किस-किस ने यह व्रत किया। सूत जी कहते है, कि एक समय काशी पुरि में एक ब्राह्मण रहता था, वह बहुत निर्धन था।
भोजन के लिये सारा-सारा दिन भिक्षा माँगता हुआ फिरता था। भगवान विष्णु को उस पर दया आ गई। वह एक वृद्ध ब्राह्मण का रूप बना कर उसके निकट पहुँचते है तथा उससे पूछते है, हे विप्र, तुम नित्य इधर-उधर क्यों भटकते रहते हो।
वह निर्धन ब्राह्मण दुखी होकर बोला, कि मैं अपनी आजीविका के लिये सारा दिन भिक्षा माँगता फिरता हूँ, हे आदरणीय ब्राह्मण देवता क्या आप मेरे दुखों का कोई उपाय बता सकते है।
ब्राह्मण रूपी विष्णु भगवान बोले कि हे विप्र, सत्यनारायण देव सभी मनोकामनाएं पूर्ण करते है, अत: तुम उनका व्रत तथा पूजन करो। वृद्ध ब्राह्मण ने उसको व्रत का विधि-विधान बतला दिया। निर्धन ब्राह्मण ने सत्यनारायण भगवान का व्रत करने का दृढ़ निश्चय कर लिया।
वह रात भर व्रत के बारे में सोचता रहा। अगले दिन जब वह भिक्षाटन पर निकला तो उसने सोचा कि आज जो भी भिक्षा मिलेगी, उससे सत्यनारायण भगवान की यथासंभव पूजा करूंगा।
उस दिन उसे भिक्षा में बहुत धन मिला। यह देख कर वह बहुत प्रसन्न हुआ तथा विधि-विधानपूर्वक उसने अपने बन्धु-बांधवों के साथ सत्यनारायण का व्रत सम्पन्न किया।
भगवान सत्यनारायण की कृपा से वह ब्राह्मण सभी सुखों से युक्त हुआ तथा धन-धान्य से परिपूर्ण जीवन व्यतीत करने लगा तथा प्रति मास सत्यनारायण का व्रत करने लगा।
हे ऋषियों, इस प्रकार जो भी जन सत्यनारायण का व्रत रखते है, वह सभी कष्टों से मुक्त होकर आनन्दमयी जीवन व्यतीत करते है तथा परमगति को प्राप्त होते है।
ऋषि बोले, हे सूत जी! उस ब्राह्मण से सुनकर और किस-किस ने यह व्रत किया, हम सभी यह जानने के लिये उत्सुक है। सूत जी बोले, हे ऋषियों! मैं आगे की कथा सुनाता हूँ, ध्यानपूर्वक सुनों।
एक बार उस ब्राहमण ने धन-वैभव के अनुसार सत्यनारायण व्रत की बड़ी भव्य तैयारी की। उसी समय एक निर्धन लकड़हारा थका-हारा होने के कारण ब्राह्मण के द्वार पर लकड़ियाँ रख कर बैठ गया।
वह बहुत भूखा-प्यासा था। उसने जब भगवान की पूजा की इतनी तैयारियाँ होती देखी तो वह पूछने लगा कि यहाँ क्या हो रहा है? यह किस देवता की पूजा की तैयारी हो रही है? इनकी पूजा से क्या फल मिलता है?
ब्राह्मण ने लकडहारे को बताया, कि यह सत्यनारायण भगवान का पूजन हो रहा है, इन्ही की कृपा से आज मेरे जीवन में धन-धान्य की कोई कमी नही है। फिर ब्राह्मण उस लकडहारे को भी व्रत का विधि-विधान बता देता है।
लकड़हारा भी सबके साथ व्रत की कथा सुनता है तथा प्रसाद लेकर घर को जाता है। वह मन ही मन निश्चय करता है कि आज लकड़ियाँ बेच कर जो भी धन प्राप्त होगा उससे भगवान सत्यनारायण का व्रत करूंगा।
यह मन में विचार कर वह लकड़हारा एक धनी लोगो के नगर में लकड़ियाँ बेचने गया। उस दिन उसे अपनी लकड़ियों के चौगुने मूल्य प्राप्त हुए। लकड़हारा बहुत प्रसन्न हुआ।
उसने तुरंत भगवान के व्रत की सभी सामग्री एकत्र करके अपने परिजनो के साथ सत्यनारायण देव का उत्तम व्रत किया। इस व्रत के प्रभाव से लकडहारे को धन, संतान तथा सभी सांसारिक सुखों की प्राप्ति हुई तथा वह भगवान विष्णु के वैकुंठ लोक को प्राप्त हुआ।
तृत्तीय अध्याय
सूत जी बोले, हे मुनियों! आगे और किस-किस ने यह व्रत किया उसकी कथा भी मैं कहता हूँ। प्राचीन समय में उल्कामुख नामक एक राजा था। वह बहुत धर्मप्रिय तथा न्यायप्रिय था। उसकी एक सुंदर सुशील पत्नी थी।
एक बार भद्रशीला नदी के किनारे वह दोनो सत्यनारायण देव का पूजन कर रहे थे। उसी समय साधु नामक एक धनी वैश्य अपने व्यापार के कार्य हेतु उस मार्ग से जा रहा था। उसने राजा तथा रानी को पूजा करते देखा तो पूछने लगा कि हे महाराज! आप यहाँ पर यह कौन सी पूजा कर रहे है तथा इससे क्या फल प्राप्त होगा?
राजा ने कहा, हे वैश्य! हम कष्टहर्ता सत्यनारायण देव का पूजन तथा व्रत कर रहे है। हमारी कोई संतान नही है तथा हमें विश्वास है कि सत्यनारायण देव की कृपा से हमें संतान प्राप्त होगी। वैश्य बोला, महाराज! मेरे भी कोई संतान नही है, कृप्या मुझे भी इस व्रत की विधि बता दीजिये मैं भी यह व्रत अवश्य करूंगा।
राजा से विधि पूछ कर वैश्य अपने मार्ग पर चला गया। अपने व्यापार का कार्य समाप्त करके वह अपने घर पहुँचा तथा अपनी पत्नी लीलावती को इस उत्तम व्रत के बारे में बताया तथा बोला कि जब मुझे संतान प्राप्त होगी तब मैं इस व्रत को करूंगा।
सत्यनारायण देव ने उसकी इच्छा पूर्ण कर दी। कुछ समय पश्चात उसे एक कन्या रत्न की प्राप्ति हुई। पुत्री का नाम कलावती रखा गया। पुत्री के जन्म के कुछ समय बीतने पर वैश्य की पत्नी ने उसे याद दिलाया कि आपने संतान होने पर सत्यनारायण भगवान का व्रत रखने का संकल्प लिया था। अत: अब उस संकल्प को पूर्ण करने का समय आ गया है।
वैश्य बोला, कि मैं इसके विवाह होने पर सत्यनारायण की पूजा तथा व्रत करूंगा। यह कहकर वह व्यापार के नगर की ओर चला गया। कलावती धीरे-धीरे बड़ी होने लगी। एक दिन वैश्य ने अपनी पुत्री को अपनी सखियों के साथ खेलते देखा तो उसे लगा कि अब उसकी पुत्री विवाह योग्य हो गई है।
उसने अपने एक दूत को पुत्री के लिये कोई योग्य वर ढूंढने का कार्य सौंपा। दूत कंचन नगर में कलावती के लिये वर ढूंढने गया। वहाँ से वह एक गुणी वणिक पुत्र को वैश्य के पास लेकर आया। उस सुयोग्य युवक को देखकर वैश्य ने अपने बन्धु-बांधवों को बुला कर अपनी पुत्री का विवाह उसके साथ कर दिया।
परंतु विवाह के समय भी वह सत्यनारायण भगवान का व्रत करना भूल गया। इस कारण सत्य देव उससे रुष्ट हो गए तथा उसे श्राप दिया कि उसे अत्यंत दुख प्राप्त होगा।
कुछ समय बाद वैश्य अपने दामाद के साथ सागर पार दूसरे देश में व्यापार करने गया। वहाँ राजा चंद्रकेतु के राज्य में वह दोनो व्यापार करने लगे। एक दिन भगवान की लीला स्वरूप एक चोर राजा का धन चुरा कर भाग रहा था।
पर जब उसे लगा कि सैनिक उसे पकड़ लेंगे तो स्वयं को बचाने के लिये वह धन की पोटली को वहाँ रख देता है जहाँ वैश्य और उसका दामाद रह रहे थे। राजा के सैनिक चोर का पीछा करते हुए जब वहाँ पहुँचते है तो उन्हें धन की पोटली मिल जाती है, सैनिक उन दोनो को पकड़ कर राज सभा में राजा के सामने प्रस्तुत कर देते है तथा कहते है कि महाराज, यह दो चोर हम पकड़ कर लाये है।
उन्हें चोर समझ कर राजा उन्हें कारागार में डलवा देता है तथा उनका धन भी छीन लिया जाता है। उधर वैश्य के घर पर उसकी पत्नी तथा पुत्री भी बहुत दुख में समय व्यतीत कर रहे थे। घर में जो भी धन था, वह चोर चुरा के ले गए थे तथा उनके घर में दाने-दाने की कमी आ पड़ी थी।
एक दिन भूख से दुखी होकर कलावती एक ब्राह्मण के घर कुछ अन्न प्राप्त करने की आशा से गई, वहाँ सत्यनारायण देव की पूजा चल रही थी। वह भी पूजा में बैठ गई, फिर कथा सुनकर तथा प्रसाद खा कर घर वापिस आई। लीलावती उसकी प्रतीक्षा कर रही थी।
कलावती को देखकर उसने पूछा, पुत्री! इतने समय से तू कहाँ थी तथा तेरे में क्या है? कलावती बोली, हे माता! मैने एक ब्राह्मण के घर पर सत्यनारायण भगवान का व्रत तथा पूजन होते हुए देखा, पुत्री की बात सुनकर लीलावती को स्मरण हो आया कि उसके पति ने सत्यनारायण देव के व्रत का संकल्प ले कर भी व्रत नही किया।
लीलावती व्रत करने का निश्चय करती है। वह व्रत की तैयारी करती है तथा अपने परिवारजनो के साथ सत्यनारायण भगवान का व्रत तथा पूजन सम्पन्न करती है। वह भगवान से अपने पति की भूल के लिये क्षमा याचना करती है तथा प्रार्थना करती है कि उसके पति और दामाद शीघ्र वापिस आ जाए।
उसके व्रत से सत्य देव प्रसन्न हो जाते है तथा राजा चन्द्र केतु को स्वप्न में दर्शन देकर कहते है कि वैश्य तथा उसके दामाद को छोड़ दो, वह दोनो निर्दोष है। यदि तुमने उन्हें नही छोड़ा तो तेरे राज्य तथा सम्पत्ति का नाश हो जायेगा। यह कह कर सत्यदेव अन्तर्ध्यान हो गए।
अगले दिन राजा ने अपने स्वप्न की चर्चा राजसभा में की तथा दोनो ससुर-जमाई को बुलवाया। राजा ने वैश्य से कहा, हे वैश्य! भाग्य वश तुम्हें यह कष्ट प्राप्त हुआ किन्तु अब तुम्हारे कष्ट समाप्त हो गए है। फिर राजा ने उनका जितना धन लिया था उससे दुगना धन देकर उन्हें विदा किया। अब दोनो ससुर जमाई अपने घर की ओर चल दिये।
चतुर्थ अध्याय
वैश्य ने मंगलाचार करके यात्रा प्रारंभ की। सागर तट तक पहुँच कर वह दोनो नाव में अपना सारा धन रखकर जलयात्रा के लिये निकलने की तैयारी करने लगे, तभी सत्यदेव उनकी परीक्षा लेने के लिये एक दंडी साधु का रूप बना कर आये।
दंडी साधु ने वैश्य से पूछा कि तुम्हारी नाव में क्या है। वैश्य ने सोचा दंडी धन माँगना चाहते है, इसलिये वह कहता है कि हे दंडी क्या आपको धन चाहियें? परंतु मेरी नाव में तो बेल तथा पत्ते भरे है। दंडी वैश्य के अभिमान पूर्ण वचन सुनकर तथास्तु कहते है और वहां से कुछ दूर जा कर सागर के किनारे बैठ जाते है।
दंडी के जाने के बाद वैश्य ने देखा कि नाव ऊँची उठी हुई है। उसने नाव के पास जा कर देखा तो नाव में बेल तथा पत्ते भरे हुए थे। अपना सारा धन अदृश्य हुआ देखकर वह मूर्छित हो गया। कुछ देर बाद उसकी मूर्छा टूटी तो वह बहुत दुखी हुआ।
उसके दामाद ने कहा कि यह अवश्य ही दंडी का श्राप है। उनके पास चलिये, वह अधिक दूर नही गए होंगे। हमें उनसे क्षमा मांगनी होगी। फिर वैश्य तथा उसका दामाद उस दिशा में दंडी को ढूंढने चल पड़ते है जिस दिशा में दंडी गए थे।
थोड़ी देर बाद उन्हें दंडी साधु मिल जाते है। वह दोनो दंडी के चरणो में गिरकर अपने अपराध के लिये क्षमा मांगते है। दंडी साधु कहते है, हे वैश्य, तू बार-बार मेरी पूजा से विमुख हुआ है, इसलिये तुझे बार-बार कष्ट उठाने पड़ रहे है। यह सुनकर वैश्य की आँखे खुल जाती है।
वह उनसे क्षमा मांगते हुए कहता है, हे प्रभु! मैं बहुत अज्ञानी हूँ, मुझे क्षमा करें तथा नौका को फिर से धन से भर दे। मैं अपने अभिमान को त्याग कर श्रद्धा सहित आपकी पूजा करूंगा। भगवान उसके वचन सुनकर उसे क्षमा कर देते है तथा अन्तर्ध्यान हो जाते है। वैश्य की नाव फिर से धन से परिपूर्ण हो जाती है।
वैश्य वहीं सागर तट पर सत्यदेव के व्रत तथा पूजन का आयोजन करता है तथा पूजा कार्य समाप्त करने के पश्चात सागर की यात्रा पर निकलता है। जब वह अपने नगर के निकट पहुंचता है तो अपने दूत को कहता है कि जाकर मेरे आने का समाचार मेरे घर पर पहुँचा दो। दूत वैश्य के घर पहुँच कर समाचार दे देता है।
लीलावती तथा कलावती सत्यनारायण भगवान की पूजा कर रहे थे। पति के आने का समाचार सुनकर लीलावती अपनी पुत्री से कहती है कि मैं उन्हें देखने जा रही हूँ, तू भी पूजा का कार्य समाप्त करके शीघ्र आ जाना।
कलावती भगवान का प्रसाद ग्रहण किये बिना ही अपने पति को देखने दौड़ पड़ी। उसकी इस भूल से सत्य देव रुष्ट हो जाते है तथा उसके पति की नाव को डुबो देते है। कलावती विलाप करती हुई धरती पर गिर पड़ती है।
वैश्य भगवान से प्रार्थना करता है, हे प्रभु! मुझसे तथा मेरे परिवार से जो भी अपराध हुए है, उन्हें क्षमा कर दो। तभी आकाशवाणी होती है, हे वैश्य! तेरी पुत्री प्रसाद छोड़ कर यहाँ आई है। यदि यह घर जा कर प्रसाद ग्रहण करके आयेगी तो इसे इसका पति अवश्य मिलेगा।
यह सुनकर कलावती शीघ्रता से घर पहुँची तथा प्रसाद ग्रहण कर के फिर आई तो उसे उसके पति के दर्शन हुए। इसके बाद साधु वैश्य ने अपने बन्धु-बांधवो के साथ सत्यदेव का विधिपूर्वक व्रत किया। सत्यदेव की कृपा से उसने जीवन भर सुखों का भोग किया तथा मृत्यु के पश्चात स्वर्गलोक को प्राप्त हुआ।
पंचम अध्याय
सूत जी बोले, हे श्रेष्ठ ऋषियों! मैं आगे भी कथा कहता हूँ, सुनो। तुंग ध्वज नाम का एक प्रजा पालक राजा था। एक बार वह आखेट के लिये जंगल को गया। बहुत देर तक जंगल में विचरते हुए वह थक गया तथा एक पेड़ के नीचे विश्राम करने लगा।
वहाँ बैठे-बैठे उसने देखा कि कुछ ग्वाले सत्यनारायण भगवान का व्रत-पूजन कर रहे है। तुंगध्वज अपने राजा होने के अभिमान के कारण निर्धन ग्वालों के पूजन कार्यक्रम में सम्मिलित होने नही गया। वह वही बैठा रहा।
पूजन समाप्त करके ग्वाले राजा को प्रसाद देने आये। परंतु राजा ने अहंकार के कारण प्रसाद भी नही लिया तथा अपने घोड़े पर सवार होकर अपने राजमहल की ओर चल पड़ा। जब उसने जंगल पार करके नगर में प्रवेश किया तो देखा कि पूरा नगर ध्वस्त हो चुका है।
यह देखकर वह समझ गया कि भगवान ने उसे उसके अहंकार का फल दिया है। उसने घोड़ा वापिस जंगल की ओर मोड़ लिया। वह शीघ्रता से ग्वालो के समीप पहुँचा। वहाँ पहुँच कर उसने सत्यनारायण भगवान की विधिवत पूजा की, उनसे क्षमा माँगी तथा प्रसाद ग्रहण किया।
भगवान ने उसे क्षमा कर दिया तथा उसका राज्य फिर पहले जैसा हो गया। राजा जीवन भर इस व्रत का पालन किया तथा स्वर्गलोक को प्राप्त हुआ।
जो भी मनुष्य इस व्रत का पालन करते है, वह सभी बंधनो से छूट जाते है। निर्धनो को धन तथा सन्तानहीन को संतान प्राप्त होती है। उनकी सभी मनोवान्छित इच्छायें पूर्ण होती है तथा अन्तकाल में भगवान विष्णु के लोक को प्राप्त करते है।
सूत जी बोले, हे ऋषियों! जिन-जिन मनुष्यों ने सत्यनारायण भगवान का व्रत किया अब मैं उनके दूसरे जन्म की कथा सुनाता हूँ।
वृद्ध शतानंद ब्राह्मण जीवन भर सत्यनारायण के व्रत कर के दूसरे जन्म में सुदामा नामक ब्राहमण बने तथा भगवान कृष्ण की मित्रता प्राप्त करके धन्य हो गए तथा श्री कृष्ण की भक्ति-स्वरूप मोक्ष को प्राप्त किया।
लकडहारा दूसरे जन्म में निषाद राज गूह बने तथा भगवान राम के मित्र बनने का सौभाग्य प्राप्त किया। श्री राम की कृपा से उन्होने भी मोक्ष को पाया।
उल्कामुख राजा ने दशरथ का जन्म लेकर वैकुंठ प्राप्त किया। साधु वैश्य मोरध्वज नामक राजा बना जिसने धर्म की रक्षा के लिये अपने पुत्र को आरे से चीर कर मोक्ष प्राप्त किया।
राजा तुंगध्वज ने स्वयम्भू मनु होकर भगवान की भक्ति में जीवन समर्पित करके मोक्ष को पाया।
'श्री सत्यनारायण भगवान की जय'।
पूर्णिमा तथा सत्यनारायण व्रत की विधि
सत्यनारायण भगवान व्रत तथा पूजन पूर्णिमा या संक्रांति को किया जाता है।
व्रत के दिन प्रात: स्नानादि से निवृत्त हो जाएं।
सुबह के समय भगवान विष्णु की पन्चोपचार पूजा करें।
पन्चोपचार पूजा में पाँच वस्तुओं का प्रयोग किया जाता है।
धूप, दीप, तिलक, पुष्प तथा नैवेद्य, यह पन्चोपचार भगवान को समर्पित करें। सामान्य पूजा पन्चोपचार विधि द्वारा ही की जाती है।
शास्त्रीय विधि के अनुसार सत्यनारायण व्रत की कथा शाम के समय की जानी चाहियें।
इस दिन पूरा दिन उपवास रखें तथा शाम के समय पूजन तथा कथा की तैयारी करें।
पूजा के स्थान को साफ कर के एक लकड़ी की चौकी रखें।
चौकी पर पीला या लाल वस्त्र बिछायें।
चौकी पर भगवान सत्यनारायण तथा लक्ष्मी जी की प्रतिमा स्थापित करें।
गणेश जी की प्रतिमा भी अवश्य स्थापित करें।
चौकी के चारो कोनो पर केले के पत्तो को स्तम्भ के प्रतीक रूप में लगा कर भगवान का भवन बनाएं।
दूध, दही, शहद, तुलसी तथा गंगाजल को मिला कर चरणामृत बनाएं।
भगवान को भोग लगाने के लिये गेहूँ के आटे का कसार बनाएं। आटे को घी में भून कर उसमें खांड या बूरा मिला कर आटे का कसार बनाया जाता है।
कसार में केले तथा आवश्यकतानुसार अन्य फल काट कर मिला लें।
पूजा प्रारंभ करने से पूर्व ब्रह्मा, विष्णु, महेश, गौरी, लक्ष्मी, गणेश, वरुण आदि का ध्यान करें तथा उनका आवाहन करें। एक तरफ जल से भरा कलश रखें।
पाँच फल, चरणामृत तथा भोग सामग्री पूजा स्थल के पास रखें।
श्री सत्यनारायण भगवान की कथा का श्रवण करें।
कथा के पश्चात भगवान को भोग लगायें तथा चरणामृत और प्रसाद सभी लोगो में वितरित कर दें।
जिन्होने व्रत रखा है वह अभी प्रसाद न खाएं, पूजा के स्थान पर जो जल का कलश रखा गया है, उस जल का अर्घ्य चन्द्रमा को अर्पित करें, उसके बाद चरणामृत तथा प्रसाद ग्रहण करके व्रत खोले।
व्रत खोलने के पश्चात सात्विक भोजन ग्रहण करें।
सत्य नारायण भगवान की पूजा कई विशेष अवसरों पर भी विशेष अवसर पर भी लोग करवाते है, कोई बड़ा काम हो जाने पर या किसी इच्छा के पूरे होने पर भी लोग कथा करवाने का संकल्प लेते है। जैसे विवाह हो जाने पर, संतान होने पर या नए घर के गृह प्रवेश के अवसर पर या नई दुकान खोलने के अवसर पर। ऐसे अवसरों पर किसी विद्वान ब्राह्मण को बुला कर पूजा के साथ हवन भी अवश्य करायें। तथा यदि आप नियमित रूप से हर महीने व्रत नही रखते है, तो विशेष अवसरों पर केवल पूजा और हवन करवाएं, उस दिन व्रत रखने की कोई आवश्यकता नही है।
क्योंकि यदि आप व्रत करें तो नियमित रूप से करने चाहियें तथा जब व्रत छोड़ना चाहें तो उद्यापन करके ही छोड़ना चाहियें।
इस दिन केले के पत्तों से बंदनवार बना कर घर के मुख्य द्वार पर लगायें।
प्रति माह जिस प्रकार पूजा तथा कथा की जाती है, उसी प्रकार उद्यापन के दिन भी भगवान श्री नारायण की कथा और पूजन किया जाता है।
उद्यापन के दिन किसी ब्राह्मण को बुला कर विधि पूर्वक व मन्त्रोच्चारण सहित पूजा तथा कथा करा लें, साथ में हवन भी करा लें।
कथा और हवन के बाद प्रसाद को अधिक से अधिक लोगो में वितरित करें।
पूजा तथा हवन करने वाले ब्राह्मण को भोजन करा कर तथा दक्षिणा देकर विदा करें।
जिस व्यक्ति ने उद्यापन किया है उसे हर बार की तरह उपवास के नियम का पालन करना चाहियें तथा रात्रि को चन्द्रमा को अर्घ्य देने के बाद ही भोजन ग्रहण करना चाहियें।
यदि पूर्णिमा के दिन व्रत-उपवास का पालन करे, चन्द्रमा को अर्घ्य दें, तो चन्द्रमा का सकारात्मक प्रभाव मनुष्य के भाग्य पर पड़ता है।
अपनी कुंडली में चन्द्रमा को अधिक शक्तिशाली बनाने के लिये इस दिन खुले आकाश के नीचे सफेद आसन बिछा कर बैठ जाए तथा सफेद वस्त्र धारण करें।
सुखासन या पद्मासन में बैठकर चन्द्रमा को एकटक देखें।
इसे त्राटक कहते है। चन्द्रमा के साथ त्राटक करते हुए चंद्र देव के मंत्र का जाप करें।
चन्द्र देव का मंत्र यह है - 'ऊँ श्रां श्रीं श्रौं स: चंद्रमसे नम:'।
पूर्णिमा के दिन सफेद मिठाई खाए तथा गरीब बच्चों में भी बाँटे।
पाँच फल, चरणामृत तथा भोग सामग्री पूजा स्थल के पास रखें।
श्री सत्यनारायण भगवान की कथा का श्रवण करें।
कथा के पश्चात भगवान को भोग लगायें तथा चरणामृत और प्रसाद सभी लोगो में वितरित कर दें।
जिन्होने व्रत रखा है वह अभी प्रसाद न खाएं, पूजा के स्थान पर जो जल का कलश रखा गया है, उस जल का अर्घ्य चन्द्रमा को अर्पित करें, उसके बाद चरणामृत तथा प्रसाद ग्रहण करके व्रत खोले।
व्रत खोलने के पश्चात सात्विक भोजन ग्रहण करें।
सत्य नारायण भगवान की पूजा कई विशेष अवसरों पर भी विशेष अवसर पर भी लोग करवाते है, कोई बड़ा काम हो जाने पर या किसी इच्छा के पूरे होने पर भी लोग कथा करवाने का संकल्प लेते है। जैसे विवाह हो जाने पर, संतान होने पर या नए घर के गृह प्रवेश के अवसर पर या नई दुकान खोलने के अवसर पर। ऐसे अवसरों पर किसी विद्वान ब्राह्मण को बुला कर पूजा के साथ हवन भी अवश्य करायें। तथा यदि आप नियमित रूप से हर महीने व्रत नही रखते है, तो विशेष अवसरों पर केवल पूजा और हवन करवाएं, उस दिन व्रत रखने की कोई आवश्यकता नही है।
क्योंकि यदि आप व्रत करें तो नियमित रूप से करने चाहियें तथा जब व्रत छोड़ना चाहें तो उद्यापन करके ही छोड़ना चाहियें।
सत्यनारायण व्रत की उद्यापन विधि
सत्यनारायण भगवान के व्रत को जिस भी इच्छा से किया जा रहा हो, इच्छा पूर्ण होने पर उसका उद्यापन कर दें।इस दिन केले के पत्तों से बंदनवार बना कर घर के मुख्य द्वार पर लगायें।
प्रति माह जिस प्रकार पूजा तथा कथा की जाती है, उसी प्रकार उद्यापन के दिन भी भगवान श्री नारायण की कथा और पूजन किया जाता है।
उद्यापन के दिन किसी ब्राह्मण को बुला कर विधि पूर्वक व मन्त्रोच्चारण सहित पूजा तथा कथा करा लें, साथ में हवन भी करा लें।
कथा और हवन के बाद प्रसाद को अधिक से अधिक लोगो में वितरित करें।
पूजा तथा हवन करने वाले ब्राह्मण को भोजन करा कर तथा दक्षिणा देकर विदा करें।
जिस व्यक्ति ने उद्यापन किया है उसे हर बार की तरह उपवास के नियम का पालन करना चाहियें तथा रात्रि को चन्द्रमा को अर्घ्य देने के बाद ही भोजन ग्रहण करना चाहियें।
पूर्णिमा व्रत के क्या लाभ है?
चंद्र ग्रह को कुंडली में प्रभावी बनाने के लिये यह सबसे उत्तम दिन है।यदि पूर्णिमा के दिन व्रत-उपवास का पालन करे, चन्द्रमा को अर्घ्य दें, तो चन्द्रमा का सकारात्मक प्रभाव मनुष्य के भाग्य पर पड़ता है।
अपनी कुंडली में चन्द्रमा को अधिक शक्तिशाली बनाने के लिये इस दिन खुले आकाश के नीचे सफेद आसन बिछा कर बैठ जाए तथा सफेद वस्त्र धारण करें।
सुखासन या पद्मासन में बैठकर चन्द्रमा को एकटक देखें।
इसे त्राटक कहते है। चन्द्रमा के साथ त्राटक करते हुए चंद्र देव के मंत्र का जाप करें।
चन्द्र देव का मंत्र यह है - 'ऊँ श्रां श्रीं श्रौं स: चंद्रमसे नम:'।
पूर्णिमा के दिन सफेद मिठाई खाए तथा गरीब बच्चों में भी बाँटे।
वर्ष के कुछ पूर्णिमा तिथि के पर्व
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