शरद पूर्णिमा की जानकारी
आश्विन मास की पूर्णिमा को शरद पूर्णिमा कहते है। यह पूर्णिमा शरद ऋतु में पड़ती है, इसलिये इसे शरद पूर्णिमा कहते है।
शरद पूर्णिमा वर्ष की सभी पूर्णिमाओं से श्रेष्ठ पूर्णिमा मानी जाती है। चन्द्रमा इस दिन अपनी 16 कलाओं सहित आकाश में उपस्थित होता है।
चन्द्रमा की शीतल किरणें धरती पर उगने वाली औषधियों को पोषण देती है। चन्द्रमा के प्रकाश के प्रभाव से ही औषधिए जड़ी-बूटियाँ इतनी प्रभावशाली होती है।
चन्द्रमा की चुम्बकीय शक्ति से सभी अवगत है। चन्द्रमा की चुम्बकीय शक्ति के कारण ही सागर में ज्वार-भाटा आता है।
शरद पूर्णिमा के दिन चन्द्रमा का प्रभाव पृथ्वी पर सबसे अधिक होता है।
क्योंकि इस दिन यह धरती के इतने पास होता है जितना कि वर्ष के किसी दिन भी नही होता।
इसीलिये शरद पूर्णिमा की रात को यह अधिक बड़ा और प्रकाशवान दिखाई देता है और इसका अत्यधिक प्रकाश इस रात औषधियों को सर्वाधिक पोषित करता है।
इसलिये इसके लाभदायक प्रकाश का भरपूर लाभ उठाने के लिये पुरातन काल से ही शरद पूर्णिमा के लिये कुछ रीतियाँ बनाई गई है। जिनमें से एक है इस दिन खीर बनाना।
शरद पूर्णिमा की पूजा कैसे करें?
शरद पूर्णिमा की रात्रि को खीर बनाएं।
इस रात्रि को भगवान विष्णु और माता लक्ष्मी की पूजा-अर्चना करें। तथा उन्हें खीर का भोग लगायें।
इस दिन माता लक्ष्मी के मन्त्रों का जाप करना अति उत्तम होगा।
माता लक्ष्मी का जाप मंत्र है - ऊँ ह्रीं लक्ष्म्यै नम:।
इस दिन मिट्टी के दीये सरसों के तेल से भर कर जलाइए तथा पूजन करें और फिर दीयों को घर के बाहर रख दें।
विष्णु जी और लक्ष्मी जी को खीर का भोग लगाने के बाद फिर खीर को चन्द्रमा के प्रकाश में रख दें।
मान्यता है कि इस रात्रि को माता लक्ष्मी पृथ्वी पर विचरण करती है। इसलिये इस दिन माता को प्रसन्न करने के लिये उनकी पूजा की जाती है।
विष्णु जी की पूजा इसलिये की जाती है क्योंकि विष्णु जी की पूजा करने पर ही माता लक्ष्मी पूजा स्वीकार करती है।
जिस घर में स्वच्छता तथा प्रकाश होता है, वही लक्ष्मी माता निवास करती है। इसलिये घर को स्वच्छ कर के तथा प्रकाश युक्त करके ही लक्ष्मी माता का आवाहन करना चाहिए।
शरद पूर्णिमा के दिन की पूजा से जिन लोगो की कुंडली में चन्द्रमा कमजोर है, वह अपनी कुंडली में चन्द्रमा को बलि करने का उपाय कर सकते है।
जिनकी कुंडली में चन्द्रमा पहले ही बलि है, उन्हें भी पूजा करने से सुफल ही मिलेगा। इसलिये सभी को यह पूजा करनी चाहिये।
इस रात्रि को चन्द्र देव को प्रसन्न करने के लिये उनके मंत्रों का जाप भी अति लाभकारी होता है।
चन्द्रमा का मन्त्र- ऊँ श्रां श्रीं श्रौं स: चन्द्रमसे नम:
शरद पूर्णिमा को खीर का मह्त्व
इस दिन रात के समय खीर बनाई जाती है। फिर उस खीर को एक बर्तन में भर के उस बर्तन को खुले आकाश के नीचे जहाँ चन्द्रमा का भरपूर प्रकाश उस पर पड़ सके, ऐसी जगह रख देते है।
बर्तन की छलनी से ढक देते है, ताकि चन्द्रमा का प्रकाश तो निर्बाध रूप से खीर को पोषित कर सके, साथ ही खीर में कोई दूषित वस्तु न गिर जाए तथा धूल मिट्टी आदि भी न पड़े।
इस तरह छलनी से रात भर खीर को ढक कर रखा जाता है। तथा सुबह उसे परिवार के सभी सदस्यों को खाना चाहिएं। इस पौष्टिक खीर से अतिरिक्त स्वास्थ्य लाभ होता है। तथा जिन्हें चन्द्रमा सम्बंधित रोग हो, उन्हें विशेष लाभ होता है।
खीर का रंग सफेद होता है। इसलिये इसमें चन्द्रमा का सफेद प्रकाश पड़ने पर चन्द्रमा का अधिकाधिक प्रभाव खीर को मिलता है।
किसी और रंग का खाद्य पदार्थ चन्द्रमा की लाभदायक किरणो के लाभ को पूरी तरह अवशोषित नही कर पायेगा।
वैसे तो हर पूर्णिमा को खीर खाना शुभ माना जाता है। लेकिन शरद पूर्णिमा के दिन इसका सर्वाधिक लाभ मिलता है।
खीर में दूध, चावल और चीनी का प्रयोग होता है। यह तीनो वस्तुएं सफेद होती है। सफेद रंग चन्द्र ग्रह का रंग है।
जिनकी कुंडली में चन्द्रमा कमजोर होता है, उन्हें विशेष रूप से पूर्णिमा के दिन सफेद रंग की वस्तुएं खानी चाहिएं और सफेद वस्त्र धारण करने चाहिएं।
शरद पूर्णिमा की कथा
शरद पूर्णिमा के दिन से एक पौराणिक कथा भी जुड़ी हुई है। कहा जाता है कि समुद्र मंथन के समय माता लक्ष्मी समुद्र में से प्रकट हुई थी।
इस से भी पूर्व की घटना इस प्रकार है। देवी लक्ष्मी स्वर्ग में निवास करती थी। उन्हीं की कृपा से देवता और स्वर्ग वैभव शाली थे।
उन्हें इस वैभव पर घमंड हो गया और उनमें अकर्मण्यता का अवगुण आ गया। इसलिये माता लक्ष्मी उनसे रुष्ट होकर स्वर्ग को त्याग कर सागर में जाकर रहने लगती है।
उनके जाते ही स्वर्ग वैभव हीन हो जाता है। तथा देवताओं का जीवन कठिन हो जाता है। वह सभी भगवान विष्णु के पास जाते है और सागर में से लक्ष्मी जी को वापिस लाने का कोई उपाय बताने को कहते है।
तब विष्णु भगवान उन सभी को सागर मंथन करने का परामर्श देते है।
मंथन के लिये बहुत अधिक व्यक्तियों की आवश्यकता थी, इसलिये देवता असुरों को भी मंथन में भाग लेने के लिये राजी कर लेते है।
समुद्र में अमृत भी था और असुर अमृत के लालच में मंथन में साथ देने के लिये तैयार हो जाते है।
सागर मंथन के लिये मन्दराचल पर्वत को रई की तरह प्रयोग करने के लिये चुना गया तथा रस्सी के लिये भगवान शिव ने अपने वासुकि नाग को भेज दिया।
जब मन्दराचल पर्वत को सागर में छोड़ा गया तो वह सागर की गहराई के अनुपात में छोटा पड़ गया और सागर के तल में डूबने लगा।
तभी भगवान विष्णु तुरंत एक विशाल कछुए का रूप धारण कर के सागर की तलहटी में बैठ जाते है। मन्दराचल पर्वत उनकी विशाल पीठ पर रुक जाता है। यह भगवान विष्णु का कच्छप अवतार था।
सागर मंथन में बहुत सी वस्तुएं निकलती है और आखिर शरद पूर्णिमा के दिन माता लक्ष्मी भी सागर से निकल आती है। माता लक्ष्मी के बाहर आते ही स्वर्ग में से जो वैभव लुप्त हो गया था वह फिर से वापिस आ जाता है।
माता लक्ष्मी की कृपा से देवताओं को उनका सारा खोया हुआ वैभव तो प्राप्त हो जाता है लेकिन माता लक्ष्मी अब उनके साथ नही जाती बल्कि भगवान विष्णु को पति रूप में स्वीकार करके उन्ही के साथ क्षीर सागर में विराजमान हो जाती है।
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