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बुद्ध पूर्णिमा : जानिए गौतम बुद्ध की जीवन कथा

बुद्ध पूर्णिमा का मह्त्व

बुद्ध पूर्णिमा महात्मा बुद्ध के जन्म दिवस का पर्व है।  महात्मा बुद्ध को हम बौद्ध धर्म के संस्थापक के रूप में जानते है।  हिन्दू धर्म ग्रंथों के अनुसार महात्मा बुद्ध को भगवान विष्णु का नौवा अवतार माना जाता है।  


इसलिये बुद्ध पूर्णिमा को हिन्दू और बौद्ध दोनो धर्म के लोग भक्ति भाव से मनाते है। उन्होने वर्षों तपस्या करके तत्व ज्ञान को प्राप्त किया।  तथा पूरा जीवन अन्य लोगो में अपने ज्ञान को वितरित किया।

बुद्ध पूर्णिमा विश्व के अधिकाधिक क्षेत्र में मनाई जाती है।  क्योंकि विश्व के बहुत से देशों में बौद्ध धर्म के धर्मावलंबी बहुतायत में है।  

जैसे कि चीन, जापान, सिंगापुर आदि तथा जहाँ भी  हिन्दू धर्मावलंबी लोग रहते है, वहां भी यह पर्व मनाया जाता है जैसे कि नेपाल, श्रीलंका, पाकिस्तान, बांग्लादेश, इंडोनेशिया आदि।




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महात्मा बुद्ध का जीवन परिचय

महात्मा बुद्ध का जन्म 563 ईसा पूर्व इश्वाकु वंश के राजा शुद्दोधन के वंश में हुआ।  उनकी माता का नाम महामाया था।  राजा शुद्दोधन नेपाल के कपिलवस्तु में शासन करते थे।   

जब महात्मा बुद्ध उत्पन्न हुए तो उनका नाम सिद्धार्थ रखा गया।  सिद्धार्थ की माता की उनके जन्म के सात दिन बाद ही मृत्यु हो गई थी, तथा बचपन से उनका लालन-पालन  मौसी ने किया था।  

उनकी मौसी का नाम महाप्रजापति  गौतमी था।  इसीलिये सिद्धार्थ का नाम गौतम भी पड़ गया।  और आगे चल कर यह गौतम बुद्ध के नाम से जाने गए। 

सिद्धार्थ बचपन से ही बहुत कोमल हृदयी और शान्त स्वभाव के थे।  एक बार किसी ज्योतिषी ने उनका हाथ देखकर कहा था की यह बालक एक चक्रवर्ती सम्राट बनेगा।  परंतु यदि इसके मन में संसार के प्रति वैराग्य उत्पन्न हो गया तो यह एक महान वैरागी और महा ज्ञानी साधु बनेगा।  

यह बात सुनकर राजा शुद्दोधन सिद्धार्थ को ऐसी सभी वस्तुओं से दूर रखने लगे जो सिद्धार्थ के मन में वैराग्य उत्पन्न कर सकती थी।  

राजकुमार सिद्धार्थ को सदैव प्रसन्न रखा जाता था।  समय के साथ वह युवा हो गए और उनका विवाह यशोधरा नामक राजकुमारी से हो गया।  

कुछ समय के पश्चात यशोधरा ने एक पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम राहुल रखा गया।  सिद्धार्थ अपने जीवन से बहुत प्रसन्न थे।  

राजा शुद्दोधन अब आश्वस्त थे कि सिद्धार्थ का मन घर गृहस्थी में और संसार के कार्यों में रम गया है और अब वह जल्दी ही  एक अच्छे राजा बनेंगे।  यह सोचकर अब वह सिद्धार्थ की तरफ से निश्चिंत हो गए थे।  

उनके निश्चिंत होते ही नियति ने करवट ली।  एक दिन सिद्धार्थ अपने रथ पर नगर का  भ्रमण करने निकले।  वह चारो ओर प्रकृति के मनोहर दृश्य देखकर बहुत प्रसन्न थे।  

तभी उन्होने देखा कि एक व्यक्ति बहुत बुरी अवस्था में है। उसे कुछ लोग वैद्य के पास ले जा रहे थे।  

सिद्धार्थ ने अपने सारथी से पूछा कि इस व्यक्ति को क्या हुआ है।  सारथी ने कहा कि यह रोगी है।  इसे वैद्य के पास ले जा रहे है।  जीवन में रोग आदि तो लगे ही रहते है।  रोग तो किसी को भी हो सकते है।  यह सुन कर सिद्धार्थ को बहुत दुख हुआ।  

फिर उन्होने देखा कि सामने से एक कमजोर व्यक्ति लाठी टेक-टेक कर चलता हुआ जा रहा है जिसके सारे बाल सफेद है और कमर झुकी हुई है।  सिद्धार्थ ने सारथी से पूछा यह व्यक्ति लाठी लेकर क्यो चल रहा है।  

सारथी ने कहा कि यह वृद्ध है।  वृद्धावस्था में सभी लोग  कमजोर हो जाते है।  बाल सफेद हो जाते है।  चेहरे पर झुर्रियां पड़ जाती है। दांत टूट जाते है।   कमर झुक जाती है  और बस किसी तरह अपने जीवन के दिन काटते रहते है।  

क्या सभी लोग वृद्ध हो जाते है, सिद्धार्थ ने पूछा।  सारथी ने कहा, हाँ राजकुमार सभी वृद्ध होते है।  

क्या मैं भी एक दिन वृद्ध हो जाऊंगा, सिद्धार्थ ने पूछा।  सारथी ने कहा, जी राजकुमार यह तो जीवन सत्य है।  यह तो निश्चित है इसे टाला नही जा सकता।  

यह जान कर सिद्धार्थ के हृदय को बहुत आघात पहुँचा। वह वह बुझे मन से बैठे थे और रथ आगे बढ़ रहा था।  

तभी सामने से कुछ लोग एक मृत व्यक्ति की अर्थी लेकर जा रहे थे।  सिद्धार्थ ने सारथी से पूछा यह क्या है।  सारथी ने कहा कि किसी व्यक्ति की मृत्यु हो गई  है। इसे लोग अन्तिम संस्कार के लिये ले जा रहे है।  

सिद्धार्थ ने पूछा कि मृत्यु क्या होती है, तो सारथी ने बताया कि बूढ़ा होने के बाद एक दिन यह शरीर जड़ हो जाता है।  आत्मा शरीर को छोड़ कर चली जाती है।  

फिर अगर उसका दाह संस्कार नही किया गया तो उसका शव किसी फल सब्जी की तरह खराब होने लगेगा।  बदबू छोड़ने लगेगा।  बीमारियाँ फैलाने लगेगा।  इसलिये मृत्यु के बाद शव का दाह संस्कार करना आवश्यक होता है।  

यह सब सुन कर सिद्धार्थ ने कहा कि क्या सब को मरना होता है।  सारथी ने कहा जी राजकुमार।  सिद्धार्थ ने कहा तो क्या मैं भी एक दिन मर जाऊंगा।  

सारथी ने सिर झुका कर मौन स्वीकृति दी।  सिद्धार्थ  यह सब जानकर बहुत व्याकुल हुए।  वह महल लौट आये।  उनके मन में लगातार इन घटनाओं का चिंतन चल रहा था।  वह अपने मन को शान्त नही कर पा रहे थे और एक दिन रात के समय वह अपना घर-परिवार सब कुछ छोड़ कर जीवन के सत्य की खोज में निकल गए।  

वह वर्षों तक वनों में भटकते रहे और एक दिन वह एक पीपल के वृक्ष के नीचे बैठ कर ध्यान में लीन हो गए और एक दिन उन्हें ज्ञान के प्रकाश का अनुभव हुआ।  

एक प्रकाश उनके भीतर समा गया और उनका मन असीम शान्ति को प्राप्त हो गया।  

बिहार के बोधिगया नामक स्थान पर उन्हें ज्ञान का प्रकाश मिला था।  तभी से लोग उन्हें महात्मा बुद्ध कहने लगे।  उन्हें ज्ञान का प्रकाश वैशाख मास की पूर्णिमा के दिन प्राप्त हुआ था। 

साधु-सन्यासी कभी एक स्थान पर अधिक समय तक नही ठहरते।  बुद्ध भी इधर उधर जाते रहते थे और जहाँ भी वह जाते थे, सामान्य जनों को अपने प्रवचनो से धन्य कर दिया करते थे।  

उन्होने बौद्ध धर्म की स्थापना की, तथा निराकार ईश्वर की उपासना का उपदेश दिया।  अपने अन्तिम समय में वह कुशी नगर में थे।  

वहाँ पर  ही उन्होने समाधि ली थी तथा महा निर्वाण को प्राप्त हुए थे।  483 ईसा पूर्व वैशाख मास की पूर्णिमा के दिन ही उन्होने महा निर्वाण प्राप्त किया था।

बुद्ध पूर्णिमा कैसे मनाएं

पूरे विश्व में बौद्ध धर्म के अनुयायी काफी बड़ी संख्या में है, साथ ही यह हिंदुओं का भी महत्वपूर्ण पर्व है।  इसलिये बुद्ध पूर्णिमा का उत्सव विश्व के लगभग सभी देशों में बड़े उत्साह के साथ मनाया जाता है। 


इस दिन  बौद्ध धर्मावलंबी बिल्कुल दीपावली की तरह अपने घरो को फूलो से तथा भाँति-भाँति के साज-सज्जा की वस्तुओं से सजाते है।  

रात को मिट्टी के दिये जला कर दीपावली की तरह अपने घरों को प्रकाशवान करते है।

इस दिन बौद्ध संघ के लोग प्रार्थना सभाएं करते है  तथा बौद्ध धर्म के धार्मिक ग्रंथो का पठन-पाठन किया जाता है।

बिहार के बोधिगया में वह पीपल का पेड़ आज भी जीवित है जिसके नीचे महात्मा बुद्ध ने ज्ञान प्राप्त किया था। 

आज भी हर वर्ष बुद्ध पूर्णिमा के दिन उस पेड़ की पूजा की जाती है।  तथा दूर-दूर से लोग उस पेड़ के दर्शनो के लिये आते है।  उस पेड़ को बोधिसत्व कहा जाता है।  

बुद्ध पूर्णिमा के अवसर पर बोधिसत्व के वृक्ष को रंग-बिरंगे फूलो और बौद्ध धर्म की छोटी-छोटी ध्वजाओं से सुसज्जित किया जाता है।

इस दिन बोधिसत्व वृक्ष के पास दिये जला कर इसकी पूजा-अर्चना की जाती है तथा इसकी जड़ों में दूध और सुगंधित जल चढ़ाया जाता है।

इस दिन बौद्ध धर्म के अनुयायी भगवान बुद्ध की मूर्ति की भक्ति भाव से पूजा करते है। तथा उन्हें धूप-दीप, फल-फूल आदि अर्पित करते है।

इस दिन उत्तर प्रदेश के कुशीनगर में बहुत बडा मेला लगता है।  यह मेला एक महीने तक चलता है।  

यह वही स्थान है जहाँ गौतम बुद्ध ने अन्तिम समाधि ली थी तथा महा निर्वाण को प्राप्त हुए थे। इस मेले में दूर-दूर से हिन्दू और बौद्ध धर्मावलंबी श्रद्दा भाव से आते है।

इस दिन हिन्दू तथा बौद्ध दोनो धर्म के लोग दान पुण्य को बहुत मह्त्व देते है।  इस दिन अन्न और वस्त्र का दान करना बहुत पुण्यदायक माना जाता है।

श्री लंका तथा एशिया के अन्य दक्षिण-पूर्वी देशों में इसे वेसाक उत्सव के नाम से जाना जाता है।









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