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जानिए होली से जुड़ी हुई विभिन्न कथाएं

रंगो का त्यौहार होली हिन्दू धर्म के मुख्य त्यौहारों में से एक है।  यह प्रतिवर्ष  फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है।  यह त्यौहार दो दिन मनाया जाता है।  

फाल्गुन पूर्णिमा के प्रदोष काल में होलिका दहन किया जाता है और अगले दिन धूलिवन्दन होता है जिसे आम भाषा में  धुलेंडी कहते है। 

यह हिन्दू धर्म का पवित्र पर्व है। यह पूरे भारत, नेपाल, पकिस्तान, बांग्लादेश, श्री लंका तथा अन्य सभी देशो में भी रहने वाले हिन्दुओ द्वारा मनाया जाता है। 

आज हम होली से जुडी हुई सारी जानकारी  प्राप्त करेंगे। 



holi




होली का अर्थ 

चलिये सबसे पहले हम जानते है होली शब्द का अर्थ।  होली शब्द होला से बना है।  होला का अर्थ है अन्न की फलियाँ। इस शब्द के अर्थ से ही यह स्पष्ट है कि होली अन्न का त्यौहार है।

होली दहन में भी गेहूँ की बालियाँ भूनी जाती है अर्थात यह अन्न भूनने  की प्रक्रिया है जिसे होलिका दहन भी कह सकते है।  होली वास्तव में कृषि का ही त्यौहार है। 

इस समय गेहूँ की नई फसल की कटाई का समय होता है।  और इसीलिये नए गेंहूँ के कुछ दाने अग्नि को समर्पित कर के फिर हम उन्हें ग्रहण करते है।

यह ग्रीष्म ऋतु के स्वागत का भी पर्व है।  इस समय शीत ऋतु विदा हो रही होती है इसलिये अन्तिम बार आग जला कर आग सेंकने का आनंद लिया जाता है। 

अगले दिन सब पानी और रंगों से सराबोर होकर  होली खेलते हुए ग्रीष्म ऋतु का स्वागत करते है।  

रंगो से खुशियां मनाने का यह अर्थ भी है कि इस समय पतझड समाप्त हो चुकी होती है और बसंत ऋतु शुरु हो चुकी होती है।  सारे पेड़ पौधे रंग बिरंगे फलो फूलो से लदे होते है और पूरा वातावरण रंगीन और खुशनुमा होता है।  

इसलिये रंगो से खेलकर सब लोग खुद भी पेड़ पौधो की तरह रंग बिरंगे हो कर खुद को प्रकृति के रंगों में खो देते है।  

इस दिन सब लोग अपने आपसी वैर-भाव भुला कर  एक दूसरे के गले मिलकर होली की शुभकामनायें देते है और तरह तरह के स्वादिष्ट पकवान बना कर अपने परिजनों और मित्रों को खिलाते है।  

होली की कथाएं

होली से जुडी हुई कुछ पौराणिक कथाएं भी सर्व प्रचलित है।     

कामदेव की कथा

होली की प्रथम कथा भगवान शिव से जुडी हुई है।  भगवान शिव को पार्वती से विवाह के लिये राज़ी करने के लिये सभी देवताओं ने कामदेव को उनके सम्मुख भेजा।  भगवान शिव तपस्या में लीन थे।  

कामदेव ने अपना मोहिनी बाण भगवान शिव को लक्ष्य कर के  चला दिया।  इस से भगवान शिव कुपित हो गए और उनका तीसरा नेत्र खुल गया।  तथा उन्होने कामदेव को भस्म कर दिया।  

कामदेव को मृत देख कर उनकी पत्नी रति भगवान शिव से रो-रो कर अपने पति के प्राणों की भीख मांगने लगी।  तब भगवान शिव का क्रोध शान्त हो गया और उन्होने  कामदेव को पुनर्जीवित कर दिया।  

कहा जाता है कि यह दिन फाल्गुन की पूर्णिमा का ही था इसलिये इस दिन होली मनाई जाने लगी।  

हिरण्यकश्यप और प्रह्लाद की कथा  

हिरण्यकश्यप एक दुष्ट असुर राजा था।  उसने घोर तप किया और ब्रह्मा जी ने प्रसन्न हो कर उससे वरदान मांगने को कहा तो उसने अमरता का वरदान मांगा।  

ब्रह्मा जी ने कहा कि अमरता का वरदान किसी को नही मिल सकता, इसलिए तुम कुछ और मांग लो। 

तब उस असुर ने चतुरता दिखाते हुए यह वरदान मांगा कि वह आग, पानी, हवा, सुर, असुर, नर, नाग, किन्नर, और किसी भी अस्त्र शस्त्र के द्वारा न मारा जा सके तथा न ऊपर न नीचे न अंदर न बाहर न दिन में न रात को कोई उसे न मार सके।

ब्रह्मा जी ने उसे वरदान दे दिया।  वरदान प्राप्त कर के वह और अत्याचारी हो गया और भगवान की पूजा बन्द  करवा कर अपनी पूजा करवाने लगा।  

उसका प्रह्लाद नामक एक पुत्र था जो कि विष्णु भगवान का  परम भक्त था। वह  हिरण्यकश्यप की पूजा करने के लिये तैयार नही हुआ।  

हिरण्यकश्यप ने उसे मारने के अनेको उपाय किये पर हर बार वह प्रभु का नाम ले कर बच जाता।  हिरण्यकश्यप की एक  बहन थी  होलिका, उसे ब्रह्मा जी ने वरदान में एक दुशाला दिया था जिसे ओढ़ कर वह आग में जल नही सकती थी।  

वह अपने भाई की मदद करने के लिये उस दुशाले को ओढ़ कर प्रह्लाद को गोद में लेकर आग में बैठ गई।  पर  ईश्वर की कृपा से वह स्वयं ही जल गई और प्रह्लाद जीवित बच गया।  

उसके बाद श्री हरि ने नरसिंह अवतार धारण कर के हिरण्यकश्यप का वध किया था।  

जिस दिन होलिका की मृत्यु हुई उस दिन फाल्गुन की पूर्णिमा थी और उसके अगले दिन सभी लोगो ने प्रह्लाद के जीवित बचने की खुशी में रंग गुलाल से होली खेली।  तभी से हर वर्ष इस दिन होलिका दहन की प्रथा प्रारम्भ हुई।  

कृष्ण और पूतना की कथा

द्वापर युग में जब श्री कृष्ण ने कंस के काल के रूप में जन्म लिया तब वासुदेव रातों-रात कृष्ण को गोकुल में नन्द के घर छोड़ आये और उनकी नवजात कन्या को ले आये।  


कंस ने जब उस कन्या का वध करना चाहा तो कन्या अष्टभुजी देवी का रूप लेकर बोली कि  तेरा काल जन्म ले चुका है और अंतर्ध्यान हो गई।  

कंस ने यह जानने पर राक्षसी पूतना को बुलवाया और उसे आसपास के सभी नवजात बच्चों को मार डालने का आदेश दिया।  

पूतना एक सुंदर स्त्री का रूप धारण कर के आस पास के सभी गाँवों में घूमने लगी और जहां भी वह किसी नवजात बालक को अकेला देखती थी, उसे अपना विषैला दूध पिला कर मार डालती और एक दिन वह गोकुल में नंद के घर पहुँच गई।  

उसने देखा कि कृष्ण पालने में झूल रहे है तो सबकी नज़र बचा कर वह कृष्ण को दूध पिलाने लगी।  पर कृष्ण उसकी दुष्ट मंशा जान गए और दूध के साथ उसके प्राण भी पीने लगे।  

पूतना छटपटाने लगी और उसके प्राण निकल गए।  इस दिन भी फाल्गुन की पूर्णिमा थी,  इसलिये गोकुल, मथुरा व्रज आदि में  होली अधिकाधिक धूमधाम से मनाई जाती है।  

धुंढी  राक्षसी की कथा

होली के सन्दर्भ में एक धुंढी राक्षसी की कथा का भी उल्लेख मिलता है।  राजा पृथु के राज्य काल में एक धुंढी नामक राक्षसी ने आतंक मचा रखा था।  

उसने शिव भगवान से यह वरदान प्राप्त कर रखा था कि उसे सुर, असुर, नर, पशु  तथा कोई अस्त्र शस्त्र मार न सके।  भगवान शिव ने वरदान दे दिया तथा कहा कि  उसे बच्चो से सावधान रहना होगा।  

जब उसका आतंक बढ़ने लगा तो राजा पृथु के राजगुरु ने उन्हें बताया कि बच्चो के द्वारा ही इस राक्षसी से निपटा जा सकता है।  गुरु की आज्ञा के अनुसार बच्चो को एकत्रित किया गया। 
 
फाल्गुन पूर्णिमा की रात्रि को बच्चो ने घास-फूस, लकड़ी, उपले आदि एक जगह एकत्र कर के उनमें आग लगा दी तथा जोर जोर से मन्त्रो का जाप करते हुए अग्नि की प्रदक्षिणा करने लगे और खूब शोर मचाने लगे।  

धुंढी बच्चो का शोर सहन नही कर पा रही थी और उसकी शक्ति कमजोर पड़ने लगी और फिर बच्चो ने लाठी, डंडों और पत्थरों से मार-मार कर उसे  नगर से बाहर  भागने पर मजबूर कर दिया।   

होलाष्टक

होली से आठ दिन पहले फाल्गुन शुक्ल पक्ष की अष्टमी से पूर्णिमा तक होलाष्टक होता है।  क्योंकि यह होली से पूर्व के आठ दिन की अवधि का होता है इसलिये इसका नाम होलाष्टक है।  

पौराणिक मान्यताओं के अनुसार फाल्गुन शुक्ल पक्ष की अष्टमी के दिन से ही हिरण्यकश्यप ने प्रह्लाद को मारने के लिये अनेको प्रयास करने शुरु किये थे और यह आठ दिन प्रह्लाद के लिये बहुत कष्टदायक बीते थे। 

इसी के साथ यह भी  मान्यता है कि  कामदेव को भी भगवान शिव ने अष्टमी को ही भस्म किया था  और इन आठ दिन तक वह मृत रहे थे तथा पूर्णिमा के दिन उन्हें  शंकर जी ने पुन: जीवन दान दिया था।   

इसीलिए इन आठ दिनों में कोई भी शुभ कार्य करना उचित नही माना  जाता।  इन 8 दिनों में 16 संस्कार, यज्ञ, हवन, गृह प्रवेश, विवाह या कोई भी नया कार्य शुरु नही करना चाहिये। 

होली की पूजा का सही विधि  विधान क्या है?

होली के नाम का डंडा बसंत पंचमी के दिन ही चौराहो पर गाड़ दिया जाता है।   लोग रोज़ थोड़ा-थोड़ा कर के सूखी घास-फूस और सूखी लकड़ी इकट्ठी करते रहते है।  फाल्गुन पूर्णिमा को दोपहर के समय से ही लोग पूजा करना शुरु कर देते है। 

होली पूजन की सामग्री: 

धूप, लोंग, सुपारी, कपूर, हल्दी, गुड़, बताशे, आटा, चावल, गेंहूँ की बालियाँ, गुलाल, कच्चा सफ़ेद सूत, एक जल का लोटा और बरगुलिये (बर्गुलिये गाए के गोबर से बने छोटे छोटे उपलो की माला होती है जिन्हें मूंज की रस्सी में पिरोया गया होता है) 

होली पूजन विधि:

एक थाली लें और सारी सामग्री उसमें रख लें तथा उसे किसी कपड़े से ढक कर फिर जहाँ होली पूजन के लिये स्थान बनाया गया है, वहाँ लेकर जाएं।  

सब से पहले धूप जला कर स्थापित करें।  

फिर हल्दी से होली के आगे धरती पर स्वास्तिक बनाएं।  

फिर लोँग, सुपारी, गुड़, बताशे, आटा, गुलाल होली पर अर्पित करें। 

होली पर चावल छिड़के।  फिर गेंहूँ की बालियाँ और बर्गुलियें चढ़ाएं।  

फिर होली के चारों ओर कच्चा सूत बांधते हुए और जल चढ़ाते हुए 7 परिक्रमा लगायें,  जो सूत बच जाये उसे वहीं छोड़ दें।  

सन्ध्या समय प्रदोष काल में होलिका दहन सम्पन्न किया जाता है।  

होलिका दहन के समय नए गेंहूँ की बालियाँ उस अग्नि में भून कर प्रसाद के रूप में सभी को बांटे और स्वयं भी ग्रहण करें।  

अगले दिन धूलिवंदन जिसे धुलेन्डी कहते है मनाया जाता है। 
 
इस दिन सबसे पहले होली की राख का तिलक मस्तक पर लगाते है और फिर रंग, गुलाल, अबीर से होली के त्यौहार का आनंद लेते है।  

इस दिन घरों में बहुत से पकवान बनाए जाते है, जिनमें गुजिया सबसे अधिक प्रसिद्ध व्यंजन है।  

होली के दिन सभी लोग अपने मित्रों और परिजनो के घर जाते है और होली खेलते है तथा गले मिलकर होली की शुभ कामनाएं देते है।  

इस दिन सब लोग अपने पुराने वैमनस्य को भूल कर फिर से मित्र बन जाते है।  

इसी दिन से हिन्दू वर्ष का प्रथम मास चैत्र भी प्रारंभ होता है।  इसलिये यह नव वर्ष के आगमन की खुशी का भी त्यौहार है।  

यद्यपि नव वर्ष का प्रथम दिन चैत्र नवरात्र से माना जाता है क्योंकि उस दिन से ही चंद्रमा का शुक्ल पक्ष प्रारंभ होता है।  


होली के कुछ दिनो बाद बसोड़ा पूजन का भी प्रचलन है।  यह सभी की कुल परम्परा के अनुसार निश्चित दिन किया जाता है।

विभिन्न प्रान्तों में होली 

हमारे इस रंग-बिरंगे देश में होली के भी अनेको रंग है। जितने अनूठे प्रांत उतने ही अनूठे हमारे त्यौहारो के स्वरूप। 

  • मथुरा और व्रज  की होली सबसे मन भावनी होती है यहाँ 40 दिन  तक होली का उत्सव मनाया जाता है।  यहाँ की लड्डू मार होली, लट्ठ मार होली, फूल मार होली और रंग भरनी होली के सहित नृत्य गीत आदि के कार्यक्रमों को देखने के  लिये दूर-दूर से लोग यहाँ आते है। 
  • कुमायूं में संगीत गोष्ठियाँ आयोजित की जाती है। जिन्हें गीत बैठकी कहा जाता है।
  • बिहार में होली को फाग या फगुआ कहा जाता है और ढोल बजा-बजा कर नाच गा कर धूमधाम से इस पर्व को मनाते है।
  • बंगाल और उड़ीसा में इस दिन डोल यात्रा निकलती है।  वहां पर श्री कृष्ण के विग्रह को डोली में बिठा कर घुमाते है जिसे डोल यात्रा कहते है।
  • राजस्थान और हरियाणा में लट्ठ मार होली मनाई जाती है।  यहां पर महिलाएं पुरुषों पर लट्ठ चलाती है और वह ढाल से अपना बचाव करते है।
  • पंजाब में इसे होला मोहल्ला कहते है।  इस दिन सिख अपने शौर्य का प्रदर्शन करते है। होली को यह नाम गुरु गोविंद सिंह जी ने दिया था।
  • महाराष्ट्र में इसे रंग पंचमी नाम से मनाया जाता है तथा सूखे गुलाल से होली खेलते है।
  • तमिलनाडू, केरल, आंध्र प्रदेश में होली का उत्सव कमन पोडिगई या कामदहनं नाम से मनाया जाता है तथा कर्नाटक में कामना हब्बा के नाम से मनाया जाता है।  यहाँ का उत्सव कामदेव की कथा के आधार पर मनाया जाता है।
  • गोवा में इसे शिमगो नाम से मनाते है। इस दिन यहाँ नृत्य संगीत के भव्य आयोजन होते है और जगह जगह भोज का आयोजन भी होता है।
  • नेपाल में इसे फाल्गुन पूर्णिमा कहते है तथा यहाँ भी होली का उत्सव भारत की ही तरह मनाया जाता है।

होली पर इन बातों का रखे ध्यान

होली सचमुच एक रंगो भरा बहुत प्यारा त्यौहार है।  प्राचीन समय में होली खेलने के लिये रंग भी फूलो से बनाये जाते थे जो की त्वचा को और पर्यावरण को कोई हानि नही पहुँचाते थे।  

पर अब रंगो का निर्माण हानिकारक रसायनों से होने लगा है और ऊपर से लोग उस हानिकारक रंग को दूसरो के चेहरों पर रगड़-रगड़ कर लगाते है जिससे वो त्वचा को और आँखों को भी बहुत नुक्सान पहुँचाता है।  

इसी कारण से बहुत से लोग होली खेलना ही पसंद नही करते है। यह उचित नही है।  इस तरह हम इस त्यौहार के मह्त्व को खो रहे है।  होली शालीनता से खेले।  

हानिकारक रंगो का प्रयोग करके अपने प्रियजनो को परेशानी में न डाले और इस रंग भरे  त्यौहार के सौंदर्य और पवित्रता को बनाए रखें।  





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