महर्षि वाल्मीकि की जयंती प्रतिवर्ष आश्विन पूर्णिमा को मनाई जाती है। वाल्मीकि जी संस्कृत के महान कवि, ज्योतिषी तथा नक्षत्र शास्त्री थे। इन्हें आदि कवि भी कहा जाता है।
वाल्मीकि जी महर्षि कश्यप के वंश में उत्पन्न हुए थे। यह महर्षि कश्यप तथा अदिती के नवे पुत्र वरुण की संतान थे। इनकी माता का नाम चर्षणी था। इनके पिता वरुण का एक नाम प्रचेता भी था। इसलिये इनका नाम प्रचेतस पड़ गया।
एक बार वह बहुत दीर्घ काल तक साधना में लीन रहे। तथा उनके शरीर पर दीमकों ने अपनी बाम्बियां बना ली। दीमकों की बांबी को संस्कृत में वाल्मीक कहते है।
इसलिये साधना पूरी होने के बाद इन्हें वाल्मीकि नाम से पुकारा जाने लगा। तथा इनका यही नाम जग प्रसिद्ध हो गया।
वाल्मीकि जी की रचनायें
उनकी मुख्य रचनायें रामायण, योग वशिष्ठ तथा अक्षर-लक्ष्य है।
उन्होने राम कथा को एक काव्य के रूप में रचित किया इसके लिये उन्हे महान प्रसिद्धी प्राप्त हुई तथा उन्हें आदि कवि माना जाने लगा।
रामायण को प्रथम लिखित पुस्तक का रूप उन्होने ही दिया था ताकि साधारण जन मानस के लिये यह कथा उपलब्ध हो सके।
उन्होने योग वशिष्ठ ग्रंथ की रचना की। यह हिन्दू धर्म के मुख्य ग्रंथों में से है। इसे वशिष्ठ रामायण या वशिष्ठ गीता भी कहते है। यह आध्यात्म सम्बंधी गूढ़ ज्ञान के विषय पर आधारित है।
उन्होने अक्षर लक्ष्य की भी रचना की। यह गणित के सूत्रों पर आधारित एक ग्रंथ है।
वाल्मीकि चरित्र
वह ईश्वर के महान साधक थे तथा उन्होने आध्यात्म जीवन के साथ ही समाज के लाभ के लिये अमूल्य ग्रंथो की रचना भी की।
उन्हें त्रिकालदर्शी माना जाता है। सतयुग से लेकर द्वापर तक की घटनाओं में उनके उपस्थित होने के प्रमाण मिलते है। त्रेता युग में उन्होने रामायण की रचना की।
जब भगवान राम ने सीता जी को वनवास दे दिया था। उस समय उन्होने वाल्मीकि जी के आश्रम में ही आश्रय लिया था। तथा वही माता सीता ने लव और कुश को जन्म दिया था।
द्वापर युग में भी उनके होने के प्रमाण मिलते है। जब पाण्डव महाभारत का युद्ध जीत चुके थे। उसके बाद उन्होने यज्ञ का आयोजन किया। उस समय यज्ञ समाप्त होने पर स्वयमेव ही शंख की ध्वनि होती थी।
परंतु पांडवो के यज्ञ समाप्ति पर शंख ध्वनि नही हुई। उन्होने भगवान कृष्ण से इसका कारण पूछा। उन्होने कहा क्या तुमने महर्षि वाल्मीकि जी को आमंत्रित किया था।
इसके बाद द्रौपदी वाल्मीकि जी को लेने जाती है। वाल्मीकि जी के आते ही शंख की ध्वनि होने लगती है। वाल्मीकि जी को ब्रह्मा जी का एक अवतार भी माना जाता है।
वाल्मीकि जयंती कैसे मनाते है?
वाल्मीकि जयंती को पूरे भारत में उत्साह पूर्वक मनाया जाता है।
इस दिन मन्दिरों में वाल्मीकि जी की आरती पूजन किया जाता है तथा प्रसाद वितरित किया जाता है।
मन्दिरों तथा अन्य स्थानो पर भंडारे किये जाते है।
साधु संत इस दिन यज्ञ हवन आदि के आयोजन करते है।
कई स्थानो पर झाँकियाँ आदि भी निकाली जाती है।
इस दिन उनके अनुयायियों द्वारा भजन कीर्तन के समारोह आयोजित किये जाते है।
क्या वाल्मीकि डाकू थे?
वाल्मीकि जी का जन्म का नाम प्रचेतस था। उन्हें वाल्मीकि नाम इसलिये मिला, क्योँकि उन्होने इतनी दीर्घ कालीन कठिन साधना की प्राप्ति की, जिसके फलस्वरूप उनके पूरे शरीर पर मिट्टी जम गई और उसमें दीमको ने बाम्बियां बना ली।
दूसरी ओर कुछ जानकारों द्वारा एक डाकू का उल्लेख किया जाता है। जिसका नाम रत्नाकर था, जो कि एक भील थे।
रत्नाकर ने एक बार कुछ ऋषियों को लूटने का प्रयास किया। उन्हीं ऋषियों ने अपने उपदेश द्वारा रत्नाकर का हृदय परिवर्तन कर दिया।
उन्होने भी स्वयं को साधना में इतना लीन कर लिया था कि उनके शरीर पर दीमको के बिल बन गए। इसलिये वह भी वाल्मीकि नाम से प्रसिद्ध हुए।
कुछ जानकार वाल्मीकि जी को केवट बताते है। इसके पीछे का कारण अज्ञात है।
जैसा कि वाल्मीकि रामायण के पाठक जानते होंगे कि रामायण में वाल्मीकि जी ने अनेकों श्लोको में नक्षत्रों तथा ज्योतिष से सम्बंधित चर्चा की है।
उन्होने अक्षर लक्ष्य जैसा गणित पर अधारित ग्रंथ भी लिखा। जिससे यह स्पष्ट होता है कि वह एक महान ज्योतिष शास्त्री, नक्षत्र शास्त्री तथा महान गणितज्ञ थे तथा संस्कृत के प्रकांड पंडित तो वो थे ही।
दूसरी ओर रत्नाकर जी, जिन्होने अपने बुरे कर्म छोड़ कर आध्यात्म का मार्ग अपनाया। इसके लिये वह सम्मान के पात्र है।
यह सम्भव है कि कोई व्यक्ति अधर्म के मार्ग से विमुख होकर धर्म के मार्ग पर चलने लगे। परंतु यह तथ्य विचारणीय है कि कोई व्यक्ति अचानक ही नक्षत्र विज्ञान, ज्योतिष विज्ञान, गणित तथा संस्कृत का महान ज्ञाता बन जाए।
इस तथ्य से ऐसा प्रतीत होता है कि यह दो अलग-अलग व्यक्ति थे। जैसा कि वाल्मीकि जी के बारे में कहा जाता है कि वह तीनो युगों में उपस्थित थे।
इससे यह प्रतीत होता है कि वाल्मीकि एक व्यक्ति नही बल्कि ऋषि कुल की एक परम्परा रही होगी। जिसका प्रारंभ रामायण रचयिता वाल्मीकि जी ने किया तथा रत्नाकर जी ने भी स्वयं को वाल्मीकि परम्परा से जोड़ लिया। इसलिये वह भी वाल्मीकि कहलाये।
हो सकता है ऐसे कई अन्य ऋषि भी वाल्मीकि परम्परा से जुड़े हों। परंतु केवल इन्ही दोनो का नाम अधिक प्रसिद्ध हुआ।
जैसे कि आज भी सन्यासी मठों में शंकराचार्य एक उपाधि का नाम है। जो कि कई व्यक्तियों को मिल चुकी है। परंतु आदि शंकराचार्य तो एक ही थे।
कवि वाल्मीकि जी को प्रसिद्धि उनकी रामायण रचना के लिये मिली तथा रत्नाकर जी को अपने अंतर्मन को धर्माचरण पर लगाने के साहस के लिये तथा अपने आधे जीवन में उपजी बुराइयों को एक क्षण में स्वाहा कर देने के लिये प्रसिद्धि मिली।
इससे यह भी सिद्ध होता है कि प्राचीन काल में भी ईश्वर की पूजा उपासना पर सबका अधिकार था। इसके लिये समाज में कोई जाति भेद नही था।
जैसा कि अक्सर हिन्दू समाज पर आरोप लगाये जाते है। यह भेद-भाव और विचारों की सन्कीर्णता तथा विकृतियां हमारे समाज में थी नही, बल्कि पैदा की गई, विदेशी लुटेरों के द्वारा अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिये। इसके बारे में हम फिर कभी विस्तार पूर्वक चर्चा करेंगे।
Comments
Post a Comment