पुराणो में भगवान विष्णु के 24 अवतारों का वर्णन मिलता है। यद्यपि विष्णु जी के दस अवतारों को मुख्य अवतार माना जाता है।
हम इस लेख में विष्णु जी के 24 अवतारों की संक्षिप्त जानकारी देने का प्रयास कर रहे है।
1. सन्कादि मुनि
सन्कादि मुनि चार भाई थे। इनके नाम थे सनक, सनंदन, सनत और कुमार। ये चारों ब्रह्मा जी के पुत्र थे। तथा महायोगी थे। इन्हें विष्णु जी का प्रथम अवतार माना जाता है।
सन्कादि मुनियों ने भगवान विष्णु के द्वार पालों जय और विजय को दैत्य योनि में जन्म लेने का श्राप दिया था।
इसके कारण वह दोनो हिरण्यकश्यप और हिरण्याक्ष नाम के दो दैत्य भाईयों के रूप में जन्म लेते है। तथा उनका उद्धार करने के लिये भगवान विष्णु को कई अवतार लेने पड़े।
2. वराह अवतार
भगवान विष्णु का दूसरा अवतार वराह अवतार था। जंगली सूअर को संस्कृत में वराह कहते है। उन्होने यह अवतार हिरण्याक्ष से पृथ्वी की रक्षा के लिये लिया था।
हिरण्याक्ष नामक राक्षस ने पृथ्वी को समुद्र में छुपा दिया था। विष्णु जी समुद्र से पृथ्वी को अपने दाँत पर रख कर ऊपर ले आये। यह देख कर हिरण्यकश्यप ने उन पर आक्रमण कर दिया। वराह रूपी विष्णु जी ने उसका वध कर दिया।
3. नारद अवतार
नारद जी ब्रह्मा जी के ही पुत्र थे। उन्हें भी विष्णु जी का अवतार माना जाता है। उन्हें देवर्षि कहा जाता है। देवर्षि अर्थात ऋषियों के देव या ऋषियों में सर्वश्रेष्ठ। पौराणिक कथाओं में उनकी भूमिका बहुत महत्वपूर्ण रही है।
4. नर-नारायण
नर-नारायण दो भाई थे, तथा विष्णु जी के अनन्य भक्त थे। वह जंगलो में रह कर तपस्या करते थे। साथ ही धनुष बाण भी रखते थे। उन्हें भी विष्णु जी का अवतार माना जाता है।
5. कपिल मुनि
कपिल मुनि एक बहुत ही तेजस्वी ऋषि थे। राजा सगर के साठ हजार पुत्र उनके एक श्राप के कारण भस्म हो गए थे।
इन्हें भी भगवान विष्णु का अवतार माना जाता है। कपिलवस्तु नगर का नाम इन्ही के नाम पर रखा गया है। इन्होने ही सांख्य शास्त्र की शुरूआत की थी।
6. दत्तात्रेय अवतार
पौराणिक कथाओं के अनुसार एक बार लक्ष्मी, सरस्वती और पार्वती जी तीनो को अपने पतिव्रत धर्म पर अभिमान हो गया। भगवान विष्णु ने उनके अभिमान को दूर करने के लिये लीला रची।
उनकी लीला के वशीभूत एक दिन नारद जी उन तीनो देवियों के सम्मुख अत्रि ऋषि की पत्नी देवी अनुसुइया के पतिव्रत धर्म का गुणगान करने लगते है।
यह सुनकर देवियां कौतूहल वश विष्णु जी, शिव जी और ब्रह्मा जी को अनुसूया की परीक्षा लेने को कहती है।
त्रिदेव साधु का रूप बना कर अत्रि ऋषि की अनुपस्थिति में उनके आश्रम पहुँच जाते है। वह उनकी पत्नी अनुसूया से भोजन मांगते है।
अनुसूया तुरंत उन तीनो के लिये भोजन ले आती है। लेकिन फिर वह तीनो अनुसूया से कहते है, कि आपको यह भोजन हमें निर्वस्त्र होकर खिलाना होगा अन्यथा हम भूखे ही चले जाएंगे।
अनुसूया ऐसी अनापेक्षित बात सुनकर भी अपना धैर्य नही खोती। वह अपने द्वार से किसी को भूखा नही लौटाना चाहती थी।
अनुसूया ने जल हाथ में लेकर मन ही मन तीनो महादेवों का स्मरण किया और कहा कि यदि मैं मन, कर्म, वचन से अपने पतिव्रत धर्म का पालन करती हूँ तो यह तीनो 6-6 माह के शिशु बन जाए और फिर वह अपने हाथो का जल उन तीनो पर छिडक देती है।
उसी समय वह तीनो 6-6 माह के शिशु बन जाते है। फिर माता अनुसूया उन्हें भोजन खिलाती है। उधर तीनो देवियां उनकी चिंता में व्याकुल अत्रि ऋषि के आश्रम पहुँचती है।
तीनो देवियां अनुसूया से प्रार्थना करती है कि इन तीनों को पूर्ववत कर दें। अनुसुइया अपनी संकल्प शक्ति से तीनो देवों को पूर्ववत कर देती है।
त्रिदेव अनुसूया को माता कह कर बुलाते है और उनके पुत्र के रूप में उत्पन्न होने की इच्छा व्यक्त करते है। माता अनुसूया उन्हें अनुमति दे देती है।
फिर त्रिदेवों ने माता अनुसूया के पुत्र के रूप में दत्तात्रेय अवतार लिया। दत्तात्रेय भगवान के तीन सिर और छह भुजाएं थी। यह त्रिदेव का अवतार थे।
7. सुयज्ञ
सुयज्ञ रुचि प्रजापति और उनकी पत्नी आकूति के पुत्र थे। इन्हें भी भगवान विष्णुका अवतार माना जाता है। इन्हें यज्ञ भी कहा जाता है। इनकी पत्नी का नाम दक्षिणा था।
देवी दक्षिणा ने 12 दिव्य पुत्रों को उत्पन्न किया था, जो कि सुयम देव कहलाये।
8. ऋषभ देव
ऋषभ देव राजा नाभि के पुत्र थे। तथा यह जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर थे। इनको आदिनाथ, ऋषभनाथ और वृषभनाथ भी कहा जाता है।
ऋग्वेद, अथर्व वेद और मनुस्मृति में इनका उल्लेख मिलता है। उन्होने ज्ञान प्राप्ति के लिये 1000 वर्ष तक तपस्या की थी।
9. पृथु
पृथु स्वयाम्भुव मनु के पौत्र और वेन के पुत्र थे। पौराणिक कथाओं के अनुसार वेन एक अधर्मी राजा था। ऋषि मुनियों ने उसकी दुष्ट प्रवृत्तियों के कारण मन्त्र शक्ति से उसका वध कर दिया था।
उसकी संतान के रूप में एक उत्तम कोटि का राजा पृथ्वी को मिलना निश्चित था। इसलिये उसकी संतान होना आवश्यक था।
इस कारण उसकी भुजाओं का मंथन करके ऋषियों ने अपनी दिव्य शक्तियों से उसकी संतान उत्पन्न की। इसी संतान का नाम पृथु रखा गया। पृथु को पृथ्वी का प्रथम राजा माना जाता है।
10. मत्स्य अवतार
सतयुग के अंत का समय था। उस समय सत्यव्रत नामक एक राजा थे। एक बार वह नदी में स्नान कर रहे थे। स्नान के उपरांत वह सूर्य को अर्घ्य देने लगे।
जैसे ही उन्होने अपनी अंजुली में जल भरा तो उनकी अंजुली में एक छोटी सी मछली आ गई। उन्होने सोचा, कि मछली को अन्य जलचर खा जायेंगे।
यह सोच कर उन्होने मछली को प्रेम से अपने कमण्डल के जल में छोड़ दिया और अपने साथ ले आये। अगले दिन ही मछली इतनी बड़ी हो गई कि कमण्डल उसके लिये छोटा पड़ने लगा।
सत्यव्रत ने मछली को एक बड़े जलपात्र में छोड़ दिया। अगले दिन वह जलपात्र भी उसके लिये छोटा हो गया। राजा ने सोचा अब यह मछली बड़ी हो गई है तो उसे सरोवर में छोड़ दिया।
परंतु कुछ ही क्षणो में राजा ने देखा कि वह सरोवर भी उसके लिये छोटा पड़ रहा है। राजा ने फिर उस मछली को ले जाकर सागर में छुड़वाया।
परंतु वह यह देखकर अचंभित रह गए कि वह मछली और अधिक विशाल हो गई और उसने पूरे सागर के जल को आच्छादित कर दिया।
सत्यव्रत ने तुरंत मछली को प्रणाम किया और पूछा कि आप कौन है। तब विष्णु जी ने सत्यव्रत को दर्शन दिये और कहा कि हे राजन, आज से सातवे दिन प्रलय आने वाली है।
तुम उस दिन सप्त ऋषियों, पशुओं तथा विभिन्न औषधीय पौधों के बीजों को लेकर एक नाव में बैठ जाना। मैं उस दिन आऊंगा और जल प्रलय से तुम्हारी नाव को सुरक्षित स्थान पर ले जाऊंगा।
ठीक सातवे दिन संसार जलप्रलय में डूबने लगा। सत्यव्रत नाव में सबको लेकर समुद्र में चल पड़े।
तभी विशाल मत्स्य अवतार प्रकट हुए। अब उनके सिर पर एक सींग भी था। राजा की सहायता के लिये वहां वासुकि नाग प्रकट हुए।
मत्स्य अवतार के निर्देश अनुसार राजा ने वासुकि को रस्सी की तरह उनके सींग पर बांध दिया और उनकी पीठ पर नाव चढ़ा कर वासुकि की पूँछ नाव से बान्ध दी।
प्रलय के बाद भी वह सभी वस्तुएं जो नए युग में जीवन के लिये आवश्यक थी। उन्हें मत्स्य अवतार लेकर भगवान ने सुरक्षित रखा।
11. कच्छप अवतार
पौराणिक कथाओं के अनुसार समुद्र मंथन में देवताओं की सहायता करने के लिये भगवान विष्णु ने कच्छप अवतार लिया था।
एक बार देवी लक्ष्मी देवताओं से रुष्ट होकर सागर में चली गई। लक्ष्मी के जाने से स्वर्ग वैभव हीन हो गया। तब विष्णु जी के परामर्श पर देवताओं ने सागर मंथन की तैयारी की। सागर में अमृत भी था।
अमृत का प्रलोभन देकर देव गण असुरों को भी मंथन के कार्य में मिला लेते है। सागर मंथन के लिये मन्दराचल पर्वत को चुना गया। रस्सी का कार्य वासुकि नाग को करना था।
सबको लगा था की मन्दराचल पर्वत इतना बड़ा है, कि आधा डूबेगा और उसकी ऊपर की चोटी में वासुकि नाग को लपेट कर मंथन शुरु हो जायेगा।
परंतु जब मन्दराचल पर्वत को सागर में छोड़ा गया तो वह सागर में डूबने लगा। तभी भगवान विष्णु एक विशाल कछुए का रूप लेकर सागर के तल में बैठ जाते है और डूबते हुए मन्दराचल पर्वत को अपनी पीठ पर रोक लेते है और फिर सागर मंथन का कार्य शुरु हो पाता है।
12. धनवंतरि
सागर मंथन में बहुत सी वस्तुएं निकली थी। तथा लक्ष्मी भी सागर मंथन से उत्पन्न हुई थी। लेकिन अमृत के लोभ में देव और असुर मंथन करते रहे। अंत में धनवंतरि देव सागर मंथन से उत्पन्न हुए थे।
इन्हें विष्णु भगवान का अवतार माना जाता है। यह आयुर्वेद के जनक है। यह अमृत का कलश हाथों में लेकर सागर से उत्पन्न हुए थे।
13. मोहिनी अवतार
समुद्र मंथन की कथा में जब धनवंतरि अमृत के कलश सहित सागर से प्रकट हुए तो देवों और असुरों में अमृत प्राप्ति के लिये भयंकर युद्ध होने लगा।
तब भगवान विष्णु ने एक दिव्य सुंदरी का रूप धारण किया जिसका रूप सबका मन मोह सकता था। इसलिये उनके इस रूप को मोहिनी अवतार कहा गया।
मोहिनी रूप में उन्होने देवों और असुरों से कहा कि सभी देव और असुर दो अलग-अलग पंक्तियों में बैठ जाएं। मैं सभी को अमृत का पान करा दूंगी।
उन्के रूप से मोहित होकर सभी ने उनकी बात मान ली और पंक्तियों में बैठ गए। मोहिनी ने पहले देवताओं की पंक्ति को अमृत पिलाना शुरु किया। मोहिनी रूपी विष्णु जी सारा अमृत देवताओं को पिला कर ही समाप्त करने वाले थे।
राहु नामक असुर को शंका हुई कि हमारे लिये अमृत बचेगा ही नही। यह सोचकर वह देवताओं की पंक्ति में बैठ गया। और मोहिनी ने उसे भी अमृत पिला दिया।
फिर वह ठहाका लगा कर हँसने लगा। विष्णु जी ने देखा कि यह तो राक्षस है तो तुरंत अपने साक्षात रूप में आकर उस पर चक्र चला दिया। चक्र से राहु का सिर धड़ से अलग हो गया।
लेकिन तब तक अमृत उसके पेट में पहुँच चुका था, तथा वह अमर हो चुका था। इसलिये वह दो राक्षस बन गए। सिर को राहु कहा जाने लगा और धड़ को केतु कहा जाने लगा।
14. नृसिँह अवतार
हिरण्याक्ष की मृत्यु के बाद उसके भाई हिरण्याक्ष ने विष्णु जी से प्रतिशोध लेने का निश्चय किया था। इसलिये उसने ब्रह्मा जी को कठिन तप से प्रसन्न कर के अमरताका वरदान मांगा। किंतु ब्रह्मा जी ने अमरता का वरदान देने से मना कर दिया।
फिर उसने यह वर मांगा कि मैं आकाश में , पाताल में , रात में, दिन में, अन्दर, बाहर न मारा जा सकूं तथा मैं किसी भी नर,पशु, पक्षी, सुर, असुर या किसी भी अस्त्र-शस्त्र द्वारा भी न मारा जा सकूं। ब्रह्मा जी ने यह वरदान दे दिया।
फिर हिरण्यकश्यप ने विष्णु भक्तों को मारना और अपनी पूजा करवाना शुरु कर दिया। लेकिन उसका पुत्र प्रह्लाद भी विष्णु जी का अनन्य भक्त था।
हिरण्यकश्यप ने प्रह्लाद को मारने के भी अनेको प्रयत्न किये। पर वह उसका कुछ न बिगाड़ सका। भगवान विष्णु का नाम लेने से प्रह्लाद सभी कष्टों से बच जाता था।
तब आखिरकार हिरण्यकश्यप स्वयं ही तलवार लेकर प्रह्लाद मारने के लिये तत्पर हो जाता है। तभी एक खंबे को फाड़ कर नृसिँह अवतार के रूप में भगवान विष्णु प्रकट होते है।
उनका ऊपर का शरीर शेर का था और नीचे का मनुष्य का। वह नर, पशु, पक्षी, सुर, असुर किसी भी श्रेणी में नही आ सकते थे। वह सन्ध्या काल के समय महल की चौखट पर हिरण्यकश्यप को अपनी जांघों पर लिटा कर बैठ जाते है।
उस समय हिरण्यकश्यप न बाहर होता है न अंदर, न ऊपर होता है न नीचे, तथा न रात होती न दिन। फिर नृसिंँह भगवान अपने नखों से उसका वध कर देते है।
15. वामन अवतार
वामन पुराण के अनुसार बलि नामक एक असुर राजा महान दानवीर थे। उनकी दानवीरता के कारण असुर होने पर भी उन्हें पौराणिक कथाओं में सम्मानित स्थान प्राप्त है।
बलि ने सौ अश्वमेध यज्ञ पूर्ण करके स्वर्ग का एकाधिकार प्राप्त करना चाहता था। इसलिये इन्द्र भगवान विष्णु से सहायता मांगने जाते है।
भगवान विष्णु एक बौने ब्राह्मण का रूप धारण करते है। उनके इसी रूप को वामन अवतार के नाम से जाना जाता है। वामन रूपी विष्णु जी बलि के पास पहुँचते है और दान माँगते है।
बलि वामन अवतार को दान देने का वचन देते है। वामन बलि से तीन पग धरती मांगते है। बलि कहते है कि आप कहीँ से भी तीन पग धरती ले सकते है।
फिर वामन अवतार रूपी विष्णु विशाल रूप धारण करते है, तथा एक पग में पूरी पृथ्वी तथा दूसरे पग में स्वर्ग नाप देते है। फिर वह बलि से पूछते है कि तीसरा पग कहाँ रखूँ तो बलि अपना सिर आगे कर देते है।
वामन अपना पैर बलि के सिर पर रखते है तो बलि पाताल में पहुँच जाते है। फिर विष्णु जी प्रसन्न होकर बलि को पाताल का राजा बना देते है।
16. हयग्रीव अवतार
हयग्रीव एक राक्षस का नाम था। उसका सिर घोड़े का था। हयग्रीव ने देवी की तपस्या कर के अमरता का वरदान मांगा था लेकिन अमरता का वरदान किसी के लिये भी सुलभ नही था।
तब उस दैत्य ने चतुरता दिखाते हुए यह वरदान मांगा कि उसकी मृत्यु हयग्रीव के द्वारा ही हो।
एक बार ब्रह्मा जी निद्रा मग्न थे और उनके मुख से वेदों का पाठ हो रहा था। हयग्रीव ने वेदों का ज्ञान ग्रहण कर लिया और वह सर्व शक्तिशाली बन गया।
तब उसका वध करने के लिये भगवान विष्णु ने एक लीला रची। वह धनुष की प्रत्यंचा चढ़ा कर सो गए। हयग्रीव से दुखी सभी देव गण उन्हें जगाने आये।
ब्रह्मा जी ने एक कीट उत्पन्न कर के विष्णु जी के पास छोड़ दिया। उस कीट ने धनुष की डोरी कुतर दी। धनुष की लकड़ी विष्णु जी के सिर से टकराई और उनका सिर धड़ से अलग होकर अदृश्य हो गया।
फिर देवी आदि शक्ति उनसे विष्णु जी के धड़ पर घोड़े का सिर लगाने को कहती है। सभी देवता एक घोड़े का सिर लाकर विष्णु जी के धड़ पर लगा देते है और फिर उनसे प्रार्थना करते है कि हयग्रीव से उनकी रक्षा करें।
अब विष्णु जी का रूप भी हयग्रीव जैसा हो गया था। यह उनका हयग्रीव अवतार था। फिर वह हयग्रीव का वध कर देते है और वेद पुन: सुरक्षित हो जाते है।
17. गजेंद्र मोक्ष दाता
भागवत पुराण के अनुसार एक समय पर त्रिकूट पर्वत के पास हाथियों का एक समूह रहता था। उस समूह का राजा हाथी एक बार सरोवर पर पानी पीने गया।
तभी सरोवर में रहने वाले एक मगरमच्छ ने उसका पैर अपने जबड़ो में दबोच लिया। वह हाथी दर्द से छटपटाता हुआ ईश्वर को याद करने लगा।
भगवान विष्णु उसकी करुण पुकार सुनकर तुरंत उसकी रक्षा के लिये प्रकट होते है और मगरमच्छ का मुहँ अपने चक्र से चीर कर हाथी को बचा लेते है।
हाथी को संस्कृत में गज कहते है। इसलिये इस हाथी को कथाओं में गजेंद्र अर्थात हाथियों का राजा कहा गया है। तथा उस गजेंद्र को मोक्ष प्रदान करने वाले प्रभु को गजेंद्र मोक्ष दाता भी कहा जाने लगा।
उस गजेंद्र ने पीड़ा से छटपटाते हुए ईश्वर से जो प्रार्थनायें करी थी उसी को गजेंद्र मोक्ष स्त्रोत के नाम से जाना जाता है।
18. परशुराम अवतार
परशु राम महर्षि भृगु के पौत्र तथा महर्षि जम्दग्नि के पुत्र थे। उनकी माता का नाम देवी रेणुका था। उनका नाम राम रखा गया था।
उन्होने भगवान शिव को प्रसन्न करके उनसे एक दिव्य परशु अर्थात फरशा प्राप्त किया था। वह सदैव उस परशु को अपने साथ रखते थे। इसलिये उन्हें परशुराम कहा जाने लगा।
पौराणिक कथाओं के अनुसार हैहय वंशी क्षत्रियों ने उनके पिता की हत्या की थी। इसलिये परशुराम ने 21 बार क्षत्रियों को नष्ट करने का प्रण लिया था।
मान्यता है कि परशुराम चिरंजीवी है। वह रामायण काल में भी थे। महाभारत काल में भी थे। तथा कलयुग में जब विष्णु भगवान कल्कि अवतार लेंगे तो उनके गुरु भी वही होंगे।
19. वेद व्यास अवतार
महर्षि वेद व्यास को भी भगवान विष्णु का अवतार माना जाता है। वह महर्षि पराशर के पुत्र थे। वह जानते थे कि कलयुग में मनुष्य की स्मरण शक्ति क्षीण हो जायेगी, तथा वह वेद पाठ से विमुख हो जायेगा।
इसलिये उन्होने वेद के सम्पूर्ण रूप को चार भागों में विभाजित किया, ताकि छोटे भागों में होने से वेद पाठ सरल हो जाए। उन्होने ही महाभारत तथा पुराणो की रचना की। इसलिये उन्हें जगत गुरु माना जाता है।
20. हँस अवतार
पौराणिक कथाओं के अनुसार एक बार सनकादि मुनि अपने पिता ब्रह्मा से मोक्ष और मुक्ति सम्बन्धी शन्काओं का निवारण पूछते है।
ब्रह्मा जी उनकी शंकाएँ दूर नही कर पाते। तब भगवान विष्णु एक दिव्य हँस का रूप लेकर वहाँ उपस्थित होते है और उनके प्रश्नों का समाधान करते है।
सभी मुनि उनकी व्याख्याओं से संतुष्ट हो जाते है तथा उनकी पूजा करते है। फिर हँस रूपी विष्णु उन्हें अपने सत्य से परिचित कराते है और वैकुण्ठ लौट जाते है।
21. राम अवतार
त्रेता युग में भगवान विष्णु ने इश्वाकु वंश के राजा दशरथ के पुत्र के रूप में अवतार लिया। उनकी माता का नाम कौशल्या था। इस अवतार में उन्होने बहुत से राक्षसों का वध किया तथा उनके अत्याचारों से साधारण जनों को मुक्ति दिलाई।
माता लक्ष्मी भी सीता के रूप में अवतार लेकर उनकी पत्नी बनी। ईश्वर की लीला स्वरूप रावण ने सीता का हरण किया और श्री राम के द्वारा मृत्यु को प्राप्त हुआ।
रावण का वध करके श्री राम ने उसके अत्याचारों से पृथ्वी वासियों की रक्षा की।
साथ ही इस अवतार में उन्होने एक आदर्श पुत्र, आदर्श भाई, आदर्श शिष्य, आदर्श मित्र, आदर्श पति, आदर्श राजा का उदाहरण प्रस्तुत किया तथा इसीलिये उन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम राम कहा जाने लगा।
22. कृष्णावतार
द्वापर युग के अंत में भगवान विष्णु ने वासुदेव और देवकी के पुत्र के रूप में जन्म लिया।
उनका मामा कंस उनके प्राण लेना चाहता था इसलिये वासुदेव ने चोरी छुपे उनको गोकुल में नंद बाबा के घर पर छोड़ दिया। यशोदा और नंद ने उन्हें अपने पुत्र की तरह ही पाला।
उन्होने कंस के अनेको सेवक राक्षसो का वध किया और कंस का भी वध किया तथा अपने माता पिता और नाना को कंस के कारागार से मुक्ति दिलाई।
वह महाभारत के मुख्य नायक बने और उन्होने संसार को गीता का उपदेश देकर धन्य कर दिया।
23. बुद्ध अवतार
पुराणो में भगवान के बुद्ध अवतार का भी वर्णन मिलता है। बुद्ध नाम के कारण इस अवतार के साथ मान्यताओं में भिन्नता पाई गई है। बौद्ध धर्म के प्रवर्तक गौतम बुद्ध को भी कुछ लोगो ने विष्णु अवतार माना है।
जबकि बौद्ध धर्म इस मान्यता को नही मानता। तथा पुराणो में भी जिस बुद्ध अवतार का उल्लेख किया गया है वह गौतम बुद्ध से भिन्न है।
गौतम बुद्ध का जन्म राजा शुद्दोधन के पुत्र के रूप में नेपाल में वैशाख पूर्णिमा को हुआ था। लेकिन पुराणो के अनुसार बुद्ध अवतार कीकट नामक प्रदेश में अजन नामक व्यक्ति के पुत्र के रूप में आश्विन शुक्ल दशमी को होना निश्चित है।
पुराणो में बुद्ध अवतार की कथा का वर्णन भी मिलता है। कथा के अनुसार एक बार दैत्यों ने यज्ञ और धार्मिक कर्मकांड शुरु कर दिये जिससे उनकी शक्ति बढ़ने लगी। तब देवताओं ने विष्णु जी से कहा कि वह कुछ करें नही तो दानव सर्शक्तिमान बन जाएंगे।
फिर भगवान विष्णु साधु रूप बना कर दैत्यों के समीप गए तथा बोले कि यज्ञ की अग्नि के कारण बहुत से सूक्ष्म जीवो की प्राण हानि होती है। इसलिये यह पाप तुल्य है।
उनके उपदेशों से दानवों की बुद्धि दिग्भ्रमित हो गई। उन्होने यज्ञ करना छोड़ दिया। फिर उनकी शक्ति घटने लगी और देवताओं ने सरलता से उन पर विजय प्राप्त कर ली।
बुद्धि को वश में करने वाले विष्णु जी के इस रूप को बुद्ध अवतार माना जाता है।
24. कल्कि अवतार
पुराणो में भगवान का कल्कि अवतार कलयुग के अंत समय में होना बताया गया है। जब कलयुग में पाप बहुत बढ़ जायेगा तब भगवान विष्णु कल्कि अवतार लेंगे।
पुराणो के अनुसार सम्भल नामक गाँव में विष्णु यशा नामक ब्राह्मण और उनकी पत्नी सुमति के पुत्र के रूप में कल्कि अवतार की उत्पत्ति होगी।
उनकी पत्नी का नाम पद्मा देवी होगा। उनका देवदत्त नामक एक घोड़ा होगा। कल्कि अवतार में भगवान विष्णु पुन: सतयुग की स्थापना करेंगे।
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