अक्षय तृतीया का पर्व वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की तृत्तीया को मनाया जाता है। इसे अक्षय तीज, अक्खा तीज और आखा तीज भी कहते है।
यह वर्ष की सबसे शुभ तिथि मानी जाती है। इस दिन सर्व सिद्धि योग होता है। इस योग में कोई भी नया कार्य प्रारंभ किया जा सकता है। इस दिन को अबूझ मुहूर्त का दिन कहते है।
जिन कार्यों के लिये शुभ मुहूर्त निकाला जाता है। वो सभी कार्य इस दिन बिना किसी शंका के सम्पन्न किये जा सकते है। क्योंकि यह सभी कार्यों के लिये सबसे शुभ दिन माना जाता है।
इस दिन विवाह, सगाई, गृह प्रवेश, जमीन या मकान खरीदना, किसी भी प्रकार की खरीदारी, यात्रा, नया करोबार शुरु करना आदि बहुत शुभ माना जाता है।
किसी भी कार्य को इस दिन शुरु किया जाए तो कार्य निर्बाध रूप से पूर्ण होने की अधिकाधिक सम्भावना रहती है। इस दिन से विवाह आदि के कार्य भी शुरु हो जाते है। इस दिन सोना खरीदना बहुत शुभ माना जाता है। क्योंकि माना जाता है कि इस दिन सोना घर में लाने से माता लक्ष्मी की कृपा वर्ष भर हम पर बनी रहेगी।
अक्षय तृतीया क्यों मनाते है?
अक्षय तृतीया से कई पौराणिक वृत्तांत जुड़े हुए है। पुराणों में इस महत्वपूर्ण तिथि के दिन बहुत सी विशेष घटनाओं का उल्लेख मिलता है।
- भविष्य पुराण के अनुसार सतयुग तथा त्रेता युग का प्रारम्भ तथा द्वापर युग का अंत इसी तिथि से हुआ था।
- ब्रह्मा जी के पुत्र अक्षय कुमार की उत्पत्ति भी इसी दिन हुई थी।
- भगवान विष्णु ने परशुराम अवतार इसी दिन लिया था। परशुराम भगवान विष्णु के छठे अवतार थे। उनके पिता जम्दग्नि ऋषि तथा माता रेणुका थी। इसलिये इस दिन को परशुराम जयंती के रूप में भी मनाया जाता है।
- इसी तिथि को भगवान विष्णु ने नर-नारायण का अवतार लिया था। यह अवतार भगवान विष्णु के 24 अवतारों में से एक है। नर-नारायण दो जुड़वा भाई थे। यह धर्म तथा उनकी पत्नी रुचि के पुत्र थे। धर्म प्रजापिता ब्रह्मा जी के पुत्र थे।
- भगवान विष्णु ने हयग्रीव अवतार भी इसी दिन लिया था। भगवान विष्णु ने यह अवतार हयग्रीव नामक असुर का वध करने के लिये लिया था। हयग्रीव का सिर घोड़े का था और शरीर मनुष्य का। उसने देवी से यह वरदान प्राप्त किया था कि मैं केवल हयग्रीव के द्वारा ही मारा जा सकूं। इसलिये उसके उपद्रवों से पृथ्वी की रक्षा करने के लिये भगवान विष्णु ने भी उसके जैसा रूप धारण कर लिया। इसी को उनका हयग्रीव अवतार कहते है।
- द्वापर युग के अंत समय में कौरवों तथा पान्डवों के मध्य कुरुक्षेत्र में महाभारत का भयंकर युद्ध हुआ था जो कि 18 दिन तक चला था। महाभारत का यह युद्ध भी इसी दिन समाप्त हुआ था।
- इसी शुभ तिथि में वेद व्यास और गणेश जी ने महाभारत की लिखित रचना प्रारंभ की थी। महाभारत के लेखन से जुड़ी एक कथा भी है कि वेद व्यास जी चाहते थे, कि वह महाभारत की कथा बोले, तथा कोई अन्य व्यक्ति उसे लिखता जाए। वह किसी ऐसे व्यक्ति की खोज में थे जो उनके बोलने की गति के साथ लिखता जाए ताकि यह दीर्घ कथा लेखन कम समय में पूरा हो सके। इसलिये उन्होने गणेश जी से कथा लिखने का निवेदन किया। गणेश जी इतनी शीघ्रता से लिखते थे, जितनी शीघ्रता से वेदव्यास विचार भी नही कर पाते थे।
- बद्रीनाथ मन्दिर के कपाट भी इसी दिन खुलते है। बद्रीनाथ मन्दिर चार धामों में से एक है। यह मन्दिर उत्तराखंड के चमोली नामक स्थान पर स्थित है। प्रतिवर्ष शीत ऋतु के आगमन के समय बद्रीनाथ के कपाट बन्द कर दिये जाते है। फिर इन्हें ग्रीष्म ऋतु प्रारंभ होने पर अक्षय तृतीया के शुभ दिन फिर से भक्तो के लिये खोल दिया जाता है।
- इसी दिन माता पार्वती ने अन्नपूर्णा देवी का अवतार धारण किया था। इसकी पौराणिक कथा के अनुसार एक बार समस्त पृथ्वी पर भयंकर अकाल पड़ा। तब मनुष्यों तथा जीव जन्तुओं की रक्षा के लिये भगवान शिव ने देवी पार्वती से अन्न की भिक्षा माँगी। देवी पार्वती ने अन्नपूर्णा रूप धारण किया तथा भगवान शिव को अन्न की भिक्षा प्रदान की। उन्होने वह अन्न पूरी पृथ्वी पर सभी प्राणियों को प्रदान किया।
- माँ गंगा स्वर्ग से उतर कर धरती पर इसी दिन अवतरित हुई थी। गंगा को पृथ्वी पर भागीरथ ले कर आये थे। भागीरथ ने अपने पूर्वजो की मुक्ति के लिये कठोर तप कर के माँ गंगा को प्रसन्न किया तथा उन्हें पृथ्वी पर आने के लिये मनाया। गंगा के पवित्र जल के स्पर्श से भागीरथ के पूर्वजों को मुक्ति प्राप्त हुई थी। इसीलिये अक्षय तृतीया के दिन गंगा स्नान करना बहुत शुभ माना जाता है तथा ऐसा माना जाता है कि इस दिन पितरों का तर्पण करने से उन्हें शीघ्र मुक्ति प्राप्त होती है।
- इस दिन से कुबेर देव की कथा भी जुड़ी हुई है। पौराणिक कथाओं के अनुसार कुबेर की कठिन तपस्या से प्रसन्न होकर इसी दिन भगवान शिव ने उन्हें दर्शन दिये थे तथा उन्हें समस्त पृथ्वी के धन का धनपति बनाया था। कुबेर की पूजा अक्षय धन प्रदान करने वाली होती है। दीपावली के दिन माँ लक्ष्मी तथा गणेश जी के साथ कुबेर जी की पूजा की जाती है।
- सूर्य देव ने इसी दिन पान्डवो को अक्षय पात्र दिया था। यह एक ऐसा पात्र था, जिसमें भोजन कभी समाप्त नही होता था। वनवास के समय पान्डवो के समक्ष भोजन की व्यवस्था करना बहुत कठिन कार्य हो गया था। साथ ही उनसे मिलने अनेको ऋषि मुनि तथा अन्य लोग आते रहते थे। उन अतिथियों को अपने द्वार से भूखा लौटाना उनके लिये असहनीय था। इसलिये उन्होने भगवान सूर्य की उपासना करके उनसे अक्षय पात्र प्राप्त किया।
- वृंदावन के बाँके बिहारी मन्दिर में इसी दिन भगवान कृष्ण के चरण दर्शन का उत्सव मनाया जाता है। पूरे वर्ष बाँके बिहारी की प्रतिमा वस्त्रों से ढकी रहती है। अक्षय तृतीया की शुभ तिथि को भगवान कृष्ण के चरण दर्शन करने के लिये यह मन्दिर भक्तों की भीड़ से भरा रहता है।
- भगवान जगन्नाथ की रथ यात्रा के लिये भी इसी दिन से रथ का निर्माण कार्य प्रारंभ किया जाता है। जगन्नाथ जी की रथ यात्रा प्रतिवर्ष आषाड़ के शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि को जगन्नाथ पुरि से निकलती है।
- इसी दिन जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर ऋषभ देव जी ने एक वर्ष की निराहार तपस्या का व्रत पूर्ण करके गन्ने के रस को ग्रहण करके पारण किया था। इसलिये जैन धर्म में भी यह तिथि बहुत महत्वपूर्ण है।
अक्षय तृतीया की कथा
पौराणिक ग्रंथों में अक्षय तृतीया से जुड़ी हुई एक कथा का भी उल्लेख मिलता है।
धर्मदास नामक एक वैश्य था। एक बार उसे अक्षय तृतीया के व्रत और पूजन की महिमा का ज्ञान होता है। फिर वह प्रतिवर्ष श्रद्धा और भक्ति से अक्षय तृतीया का व्रत करने लगा।
वह प्रतिवर्ष अक्षय तृतीया के दिन सुबह गंगा स्नान अवश्य करता था। उसके बाद वह हवन और पूजन करता था तथा इस दिन गौ, स्वर्ण, अन्न, वस्त्र जितना भी दान देने में वह सक्षम था वह दिया करता था।
वह पूरे जीवन भक्ति भाव से इस दिन विष्णु जी और लक्ष्मी जी का व्रत और पूजन करता रहा।
जब वह वृद्ध हो गया तब भी वह व्रत रखता रहा और दान पुण्य करता रहा। धीरे-धीरे उसका शरीर रोग युक्त तथा जीर्ण होने लगा।
परंतु फिर भी वह जब तक जीवित रहा अक्षय तृतीया का व्रत रखता रहा। भगवान विष्णुकी कृपा से अगले जन्म में वह राजयोग को प्राप्त हुआ, तथा कुशीनगर का राजा बना।
अक्षय तृतीया कैसे मनाते है?
अक्षय तृतीया के दिन विष्णु जी और लक्ष्मी जी की पूजा की जाती है।
इस दिन भगवान विष्णु को तुलसी के पत्ते अर्पित करते है। इस दिन तुलसी के पत्तो को साबुत ही प्रयोग करते है। उनके टुकड़े नही करने चाहिएं।
इस दिन पवित्र नदियों में स्नान करना तथा दान, हवन, पूजन आदि करना अति उत्तम माना जाता है। इस दिन बाजारों में भारी भीड़ रहती है।
इस दिन कुछ न कुछ अवश्य खरीदा जाता है। सभी लोग इस शुभ दिन को अपनी आवश्यकतानुसार वस्तुएं खरीदते है, तथा दान का भी इस दिन बहुत मह्त्व माना जाता है।
वैशाख माह में भीषण गर्मी की शुरूआत हो जाती है। इसलिये ऐसी वस्तुओं का दान करने का रिवाज़ है जो कि गर्मी से राहत देने वाली होती है तथा गर्मियों में ही अधिक उपयोगी होती है।
जैसे हाथ से झलने वाला पंखा, घड़ा या सुराही, चप्पल, छाता, इनके अलावा गर्मी के फल जैसे खीरा, ककडी, तरबूज, खरबूजा आदि।
हिन्दू धर्म में दान का बहुत मह्त्व माना जाता है। दान की महिमा अपरंपार कही जाती है। ऐसी मान्यता है कि जो भी वस्तुएं जीवित रहते मनुष्य अपने हाथों से दान करता है, वह सभी उसे मृत्यु के उपरांत वापिस मिल जाती है।
यदि किसी ने जीवन में कभी कुछ दान न किया हो तो उसको मृत्यु के पश्चात कुछ भी नही मिलता और उसकी आत्मा अतृप्त ही भटकती रहती है। हमारे धर्म में हर पर्व के साथ दान को अवश्य ही किसी न किसी रूप में जोड़ा गया है।
मनुष्य जीवन में कभी भी अपनी स्थिति से संतुष्ट नही होता है। उसे कभी भी अपना संचित धन पर्याप्त नही लगता है। इसलिये वह जीवन भर अधिकाधिक धन संचय करने में ही लगा रहता है और इसी को अपने जीवन का उद्देश्य बना लेता है।
ये पर्व ही है, जो मनुष्य को कभी-कभी दूसरों के बारे में सोचने और उनके लिये कुछ करने को प्रेरित करते है।
इन पर्वों के बहाने यदि हम कभी-कभी गरीब लोगो की अपनी श्रद्धानुसार कुछ सहायता कर देते है, तो अपने मानव जीवन को सार्थक बनाने में यह हमारा एक अच्छा प्रयास हो सकता है।
मानव जन्म तभी सार्थक है जब हम अपने जीवन में दूसरो के लिये भी अपने कर्तव्यों को समझें। जो केवल अपने लिये ही जीते है, वह मानव कहलाने के अधिकारी नही है।
Comments
Post a Comment