नृसिँह चतुर्दशी की जानकारी
भगवान विष्णु ने संसार की भलाई के लिये, पापियों के नाश के लिये और सद्जनों के उद्धार के लिये समय-समय पर अवतार लिये है।
नृसिंंह रूप में भी भगवान विष्णु ने ही अवतार लिया था। वैसे तो श्रीमद्भागवत पुराण के अनुसार भगवान विष्णु के 24 अवतार है।
लेकिन केवल दस मुख्य अवतार ही अधिक प्रसिद्ध है। जिनमें नृसिँह अवतार चौथे स्थान पर आता है।
नृसिंँह अवतार का रूप आधा मनुष्य का और आधा शेर का है। शरीर का ऊपरी भाग शेर का और कमर से नीचे का भाग मनुष्य का है।
नृसिँह चतुर्दशी वैशाख शुक्ल चतुर्दशी को मनाई जाती है। नृसिंँह भगवान की पूजा पूरे भारत में श्रद्धा भाव से की जाती है परंतु दक्षिण भारत में नृसिंँह चतुर्दशी को अत्यधिक उत्साह से मनाया जाता है। दक्षिण में इन्हें संकट से बचाने वाले मुख्य देवता के रूप में पूजा जाता है।
नृसिंँह चतुर्दशी पूजा विधि
इस दिन स्नानादि से निवृत्त होकर पूरे घर को गंगा जल छिडक कर पवित्र कर लें।
यदि आप व्रत रखना चाहते है तो व्रत का संकल्प लें।
भक्ति और श्रद्धा के साथ पूरा दिन उपवास रखें।
नृसिँह भगवान की पूजा सन्ध्या के समय की जाती है। सन्ध्या काल में पूजा के स्थान को गाय के गोबर से लीप लें।
फिर उस पर आटे और हल्दी से अष्टदल कमल बनाएं।
फिर उस स्थान पर भगवान नृसिंँह और देवी लक्ष्मी के चित्र या प्रतिमा स्थापित करें।
अगर प्रतिमा है तो प्रतिमा को स्नान करा कर ही पूजा स्थान पर स्थापित करना चाहिएं।
भगवान नृसिँह को पीतांबर पहनाएं।
फिर उन्हें धूप, दीप, पुष्प, फूल माला आदि अर्पित करें।
उन्हें हल्दी या चन्दन का तिलक लगायें।
एक कलश में जल भर कर रखें और कलश पर स्वास्तिक बनाएं।
भगवान नृसिंँह और माता लक्ष्मी को फल और मेवा का भोग लगायें।
इस दिन व्रती व्यक्तियों को अन्न ग्रहण नही करना चाहिएं तथा भगवान को भी अन्न का भोग न लगायें।
नृसिंँह भगवान के मन्त्र का जाप करें तथा लक्ष्मी नृसिंँह स्तोत्र का पाठ करें।
यह नृसिंँह भगवान का जाप मन्त्र है - ऊँ लक्ष्मी नृसिंहाय नम:
मंत्र जाप 108 बार करें।
पूजा के उपरांत व्रती व्यक्ति फलाहार करे।
इस दिन दान करना बहुत उत्तम माना गया है। इस दिन तिल, फल, वस्त्र, स्वर्ण, गौ तथा भूमि का दान श्रेष्ठ माना गया है। अपनी श्रद्धानुसार जितना सम्भव हो उतना दान करना चाहिएं।
नृसिँह चतुर्दशी की रात को पूजा करना विशेष फलदायी होता है।
पैशाचिक शक्तियों के निवारण हेतु नृसिँह भगवान की रात्रि पूजा की जाती है।
माना जाता है भगवान के नृसिँह रूप की उपासना करने से और नृसिँह स्तोत्र का पाठ नियमित रूप से करने से प्रेत बाधा, तन्त्र बाधा, टोने-टोटके या इस प्रकार के सभी संकटों से मुक्ति मिलती है।
नृसिँह अवतार की कथा
हिरण्यकश्यप और हिरण्याक्ष नामक दो असुर भाई थे। इन्होने अपने उत्पात से पृथ्वी वासियों का जीवन दूभर कर रखा था।
हिरण्याक्ष इतना बलशाली था कि वह पृथ्वी को सागर के अंदर ले जा कर छुपा देता है। तब भगवान विष्णु वराह अवतार धारण करके उसका अंत करते है और पृथ्वी को सागर से बाहर ले कर आते है।
उसकी मृत्यु का प्रतिशोध लेने के लिये हिरण्यकश्यप ब्रह्मा जी की तपस्या करके उन्हें प्रसन्न करता है।
ब्रह्मा जी उससे प्रसन्न होकर उसे वर मांगने के लिये कहते है तो वह अमरता का वरदान मांग लेता है, परंतु ब्रह्मा जी अमरता का वरदान देने में असमर्थता व्यक्त करते है तथा कोई और वरदान मांगने को कहते है।
हिरण्यकश्यप उनसे वरदान मांगता है कि वह किसी भी देव, नर, पशु, दैत्य, गन्धर्व आदि के हाथो न मारा जा सके। वह किसी भी अस्त्र-शस्त्र से न मारा जा सके।
साथ ही अंदर, बाहर, धरती पर ,आकाश में, अँधेरे में उजाले में कहीं भी न मारा जा सके। ब्रह्मा जी उसे वरदान दे देते है।
वरदान प्राप्त करके वह और उत्पाती हो जाता है तथा सभी ईश्वर भक्तो का नाश करना शुरु कर देता है। तथा सबको अपनी पूजा करने के लिये बाध्य करता है।
संयोग से उसका अपना पुत्र प्रह्लाद भी परम विष्णु भक्त बन जाता है। हिरण्यकश्यप अपने पुत्र को विद्रोही मानकर उसको भी मारने के प्रयत्न शुरु कर देता है।
वह उसे मारने के अनेको उपाय करता है। लेकिन प्रह्लाद हर बार बच जाता है। फिर वह अपनी बहन होलिका से सहायता लेता है।
होलिका के पास एक चमत्कारी दुशाला था जो आग में जल नही सकता था। वह दुशाला ओढ़ कर प्रह्लाद को गोद में बिठाकर अग्नि में बैठ जाती है।
परंतु प्रह्लाद इस बार भी बच जाता है और होलिका जल जाती है।
होलिका की मृत्यु और प्रह्लाद के जीवन बचने की खुशी में सभी लोग खुशियाँ मनाते है। तभी से होली के त्यौहार का प्रारंभ हुआ।
इस बार हिरण्यकश्यप स्वयं ही प्रह्लाद को मारने का निश्चय कर लेता है। वह अपने क्रोध को वश में नही रख पाता और स्वयं ही तलवार लेकर प्रह्लाद पर आक्रमण कर देता है और उससे कहता है, कि बता कहां है तेरा भगवान।
प्रह्लाद कहते है कि वह तो हर जगह है। हिरण्यकश्यप कहता है कि अगर वह हर जगह है तो इस खंबे में भी होगा। अब मैं तुझे जान से मारुन्गा। देखता हूँ कि वह तुझे बचाने आता है या नही।
हिरण्यकश्यप यह कहकर प्रह्लाद पर वार करने वाला ही होता है, तभी वह खम्बा फट जाता है और उसके अंदर से एक प्राणी निकलता है, जिसका ऊपर का शरीर शेर का होता है और नीचे का मनुष्य का होता है।
वही नृसिँह भगवान होते है। वह हिरण्यकश्यप को अपनी जांघो पर लिटा कर महल की चौखट पर बैठ जाते है।
फिर उससे पूछते है, बता इस समय अन्धेरा है या उजाला। हिरण्यकश्यप कहता है कि न अन्धेरा है न उजाला है। उस समय गोधुली वेला होती है।
फिर नृसिँह भगवान उससे पूछते है कि तू अन्दर है , बाहर है, धरती पर है या आकाश में है। वह कहता है कि न मैं अंदर हूँ न बाहर हूँ न धरती पर हूँ न आकाश में हूँ।
वह उस समय महल की चौखट पर था जो न अन्दर थी न बाहर तथा वह नृसिँह की जांघो पर लेटा था, इसलिये न वह धरती पर था न आकाश में।
फिर नृसिँह पूछते है कि क्या मैं देव हूँ, दानव हूँ, पशु हूँ या मनुष्य हूँ। तो हिरण्यकश्यप कहता है कि तुम इनमें से कोई भी नही हो।
फिर नृसिँह पूछते है कि क्या नखो को अस्त्र-शस्त्र कहते है। हिरण्यकश्यप ने कहा नही नखों को अस्त्र-शस्त्र नही कहा जा सकता।
तो मैं ब्रह्मा जी का वरदान भन्ग न करते हुए तुम्हारा वध करता हूँ, और फिर यह कहकर नृसिँह अपने नखों से हिरण्यकश्यप का पेट चीर देते है।
उनका वह रूप बहुत रौद्र होता है तथा अब वह सब तरफ विनाश करने लगते है तथा किसी भी तरह से शान्त होते हुए नही दिखाई दे रहे थे।
तब देवता गण प्रह्लाद से कहते है कि तुम उनके सामने जाओ तभी वह शान्त होंगे। प्रह्लाद तुरंत नृसिँह भगवान के चरण पकड़ लेते है।
प्रह्लाद को देखकर उनका क्रोध शान्त हो जाता है और वह प्रेम से प्रह्लाद को गोद में बिठा लेते है। सभी देव गण नृसिँह भगवान पर पुष्प-वर्षा करते है तथा उनके इस रूप की पूजा करते है।
नृसिँह भगवान विष्णु का एकमात्र रौद्र रूप है। तथा जो भी इस रूप की उपासना करते है उनकी भी भगवान वैसे ही रक्षा करते है जैसे उन्होने प्रह्लाद की रक्षा की थी।
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