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शनिवार व्रत की कथा और व्रत विधि

शनिदेव का परिचय

शनिवार के दिन शनि ग्रह की पूजा का दिन है।  पौराणिक कथाओं के अनुसार शनिदेव सूर्यदेव के पुत्र है। इनका स्वभाव अति क्रोधी है।   शनि की गति सभी ग्रहों से धीमी है, शनि ग्रह को सूर्य की एक  परिक्रमा लगाने में  30 वर्ष का समय लग जाता है।

शनि की साड़सती के प्रति लोगो में जितना भय देखा जाता है, उतना किसी भी अन्य ग्रह की दशा के प्रति नही दिखाई देता।  शनि की दृष्टि वक्री कही जाती है।  


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रामायण की कथा के अनुसार हनुमान जी ने रावण की कैद से शनिदेव को मुक्त कराया था।  उसके तुरंत बाद शनिदेव ने रावण पर अपनी वक्री दृष्टि डाली तथा रावण की कुंडली में साड़सती शुरु हो गई तथा साड़सती के कारण ही उसका विनाश हुआ।  

इसी वृत्तांत के कारण माना जाता है, कि शनिदेव को प्रसन्न करना है तो हनुमान जी की पूजा करो, शनिदेव स्वयं ही प्रसन्न हो जाएंगे।  

शनिदेव को दण्डाधिकारी कहा जाता है।  वह सभी को उनके कर्मो का फल प्रदान करते है।  शुभ कर्म करने वाले मनुष्यों को वह साड़सती में भी शुभ फल ही प्रदान करते है। 


शनिवार व्रत कथा

एक बार नव ग्रहों में विवाद छिड़ गया कि उनमें से सबसे श्रेष्ठ कौन है।
उनका विवाद समाप्त होने का नाम ही नही ले रहा था।  अंतत: वे सभी देवराज इन्द्र से मिलने स्वर्गलोक पहुँचे।  

उन्होने देवराज इन्द्र से अपनी समस्या का कोई समाधान करने के लिये कहा।  देवराज इन्द्र दुविधा में पड़ गए।   वह सोचने लगे कि मैं यदि किसी भी एक को श्रेष्ठ बताऊंगा, तो बाकी सभी रुष्ट हो जाएंगे, इसलिये वह इस विवाद में नही पड़ना चाहते थे।  

उस समय मृत्युलोक में राजा विक्रमादित्य की कीर्ति चारो ओर फैली हुई थी।  उनकी महानता तथा सद्गुणों के चर्चे देवलोक तक पहुँचे हुए थे।  इन्द्र ने नव ग्रहों से कहा, हे नव ग्रहों! मृत्युलोक में उज्जैन नगरी में राजा विक्रमादित्य  का शासन है।  

वह बहुत योग्य, महान व्यक्तित्व तथा सद्गुणो के भण्डार है।  मुझे विश्वास है, कि वह आप सभी की समस्या का समाधान कर सकेंगे।  सभी ग्रह इन्द्र की बात मान कर मृत्युलोक में उज्जैन की ओर प्रस्थान करते है।  

जब विक्रमादित्य देखते है, कि उनके राज्य में नवग्रह पधारें है तो वह उन सभी का यथोचित आदर-सत्कार करते है।  नवग्रह कहते है, हे राजन! हमने तुम्हारी बहुत प्रशंसा सुनी है, इसलिये हम तुम्हारे पास एक विशेष कार्य हेतु आये है।  

विक्रमादित्य कहते है, हे आदरणीय नवग्रहों!  कृप्या बताईए कि मैं किस प्रकार आप की सेवा करुँ।  नवग्रह बोले, राजन! हमारे बीच यह प्रश्न उठा है, कि हम सभी में से कौन सबसे श्रेष्ठ है, हम चाहते है कि तुम इस का निर्णय करो।  

राजा  विक्रमादित्य यह सुनकर दुविधा में पड़ जाते है।  वह कहते है, हे नवग्रहों! मेरे जैसे मृत्युलोक के मनुष्य के लिये तो आप सभी आदरणीय तथा पूजनीय है।  मैं आप सभी में से किसी को भी सबसे योग्य तथा श्रेष्ठ कैसे कह सकता हूँ?  

परंतु नवग्रह इस बात पर अड़े रहे, कि उन्हें यह निर्णय करना ही होगा।  विक्रमादित्य ने इस समस्या पर गम्भीरतापूर्वक विचार किया।  

उन्होने अपने राजमहल में अपने सिंहासन के सामने महल के मध्य में सिंहासन के पास से लेकर महल के द्वार के पास तक नौ आसन बिछ्वाये।  

फिर उन्होने नवग्रहों से कहा कि आप सभी इन आसनो पर विराजें, उसके पश्चात ही मैं अपना निर्णय सुनाऊंगा।  सभी ग्रहों ने देखा कि महल के प्रवेश द्वार तक आसन बिछे हुए है।  

द्वार के पास वाले आसन पर बैठने से बचने के लिये सब ग्रह शीघ्रता से आसनों की ओर दौड़े।  सभी ने शीघ्रता से आगे के आसनों पर अधिकार जमा लिया, परंतु शनि देव अपनी धीमी गति के कारण इतनी शीघ्रता न कर पाए, और  थोड़ा पीछे रह  गए।  

उन्होने देखा आगे के आठों आसनो पर आठों ग्रह बैठ चुके है और उनके बैठने के लिये केवल द्वार के पास वाला आसन ही शेष है।  

विक्रमादित्य ने मन ही मन निर्णय कर रखा था, कि जो भी ग्रह अन्तिम आसन पर बैठ कर अपनी महानता का परिचय देगा, उसी को सबसे योग्य तथा श्रेष्ठ घोषित करूंगा, किंतु शनिदेव अन्तिम आसन पर नही बैठे।  उन्होने इसे अपना अपमान समझा।  

शनिदेव क्रोधित होकर बोले, हे राजन! तुमने अपनी सभा में मेरा अपमान किया है, तुम्हारा अपराध क्षमा योग्य नही है।  

सूर्य का एक राशि में रहने का समय केवल एक मास है, चन्द्रमा का सवा दो दिन, मंगल का डेढ़ मास, बुद्ध का एक मास, शुक्र का एक मास और बृहस्पति का तेरह मास का समय है, किन्तु केवल मैं हूँ, जो एक राशि में साड़े सात वर्ष तक रह सकता हूँ।  

मेरे प्रकोप से देवता भी भयभीत होते है।  जिस पर मेरी वक्री दृष्टि पड़ती है, उसका सर्वनाश होने से कोई नही रोक सकता।  आज तुमने मेरा अपमान करके मेरे प्रकोप को स्वयं निमन्त्रण दिया है,  अब मेरी साड़सती का प्रकोप भुगतने के लिये तैयार हो जाओ।  

यह सब बोल कर शनिदेव सभा छोड़ कर चले गए।  ग्रहों की योग्यता का निर्णय अधूरा ही रह गया।  सभी ग्रह विक्रमादित्य से विदा लेकर चले गए।  उसी दिन से विक्रमादित्य पर शनि की साड़सती प्रारंभ हो गई।  

एक दिन एक घोड़ो का व्यापारी उज्जैन में घोड़े बेचने आया।  राजा को कुछ राज-कर्मचारियों ने बताया कि उस व्यापारी के पास बहुत अच्छी प्रजाति के घोड़े है। राजा ने भी अपनी घुड़साल के संचालक को कुछ अच्छे घोड़े खरीदने के लिये भेजा।  

संचालक ने कुछ अच्छे घोड़े खरीद लिये।  राजा उनमें से एक बलिष्ठ और सुंदर दिखने वाले घोड़े पर सवार हो गए तथा उसको दौड़ाने लगे।  राजा के बैठते ही घोड़ा सरपट भागने लगा।  

यह देख कर कुछ सैनिक अपने घोड़े लेकर राजा के पीछे-पीछे दौड़े।  किन्तु वह घोड़ा राजा को इतनी तेजी से ले गया, कि सैनिक उनसे बहुत पीछे रह गए।  उन्हें दूर-दूर तक राजा का घोड़ा कहीं नही दिखाई दे रहा था।  थक-हार कर सैनिक वापस लौट आये।  

वह घोड़ा राजा को बहुत दूर घने जंगल में ले गया और उन्हें वहीं पटक कर अन्तर्ध्यान हो गया।   राजा विक्रमादित्य भूखे-प्यासे जंगल में इधर-उधर भटकने लगे, किन्तु उन्हें अपने राज्य की ओर जाने की दिशा नही सूझ रही थी।  

बहुत देर तक भटकने के पश्चात राजा को एक चरवाहा मिला,  राजा ने उससे पानी मांगा।  उसने राजा को पानी पिला दिया।  राजा ने उसे प्रसन्न होकर अपने हाथ में से एक अंगूठी निकाल कर दे दी तथा उससे पूछा कि यहां पास में कौन सा नगर है।  

चरवाहे ने एक पास के नगर का मार्ग राजा को बता दिया।  राजा उस नगर की ओर चला गया।  वहां राजा थक कर एक व्यापारी की दुकान के बाहर बैठ गया।  

व्यापारी का सुबह से कुछ भी सामान नही बिका था।  परंतु राजा के बैठने के बाद कुछ ही देर में व्यापारी की दुकान पर ग्राहकों की भीड़ लग गई।  

व्यापारी को ऐसा लगा, कि जो व्यक्ति उसकी दुकान के बाहर बैठा विश्राम कर रहा है, वह अवश्य ही बहुत भाग्यशाली है तथा उसके शुभ चरणो के पड़ने से दुकान में इतने ग्राहक आ रहे है।  

सेठ ने राजा से कहा, भाई तुम बहुत थके हुए लगते हो और तुम्हें बैठे हुए भी बहुत देर हो चुकी है, आओ, मेरे साथ मेरे घर चलो तथा भोजन कर लो।  राजा को भूख तो लग ही रही थी, इसलिये उन्होने व्यापारी की आमंत्रण स्वीकार कर लिया।  

व्यापारी राजा को लेकर घर पहुँचा।  उसके सेवको ने राजा को भोजन परोसा।  राजा भोजन करने लगे, तभी किसी कार्य से व्यापारी कक्ष से बाहर चला गया।  

जिस कक्ष में  राजा भोजन कर रहे थे, उनके सामने खूँटी पर एक हीरों का हार लटक रहा था।  तभी राजा ने देखा कि खूँटी एक-एक कर के हार के हीरों को निगल रही है।  इस प्रकार राजा के देखते ही देखते खूँटी पूरा हार निगल गई।  

राजा यह दृश्य देखकर हतप्रभ था।  तभी व्यापारी अंदर आया।  उसने देखा कि राजा की दृष्टि खूँटी पर टिकी हुई है।  व्यापारी ने खूँटी की ओर देखा, वहाँ से हार गायब देखकर वह सोचता है, कि इसी व्यक्ति ने हार चुराया है।  

व्यापारी विक्रमादित्य को पकड़ कर नगर के राजा के पास ले जाता है।  वहाँ का राजा विक्रमादित्य से पूछता है कि तुमने हार कहाँ छुपाया है, इस पर विक्रमादित्य कहते है कि हार तो खूँटी निगल गई।  

नगर के राजा को इस बात पर बहुत क्रोध आता है और वह विक्रमादित्य के हाथ-पैर कटवाने का आदेश दे देता है।  विक्रमादित्य के हाथ-पैर काट कर उनको नगर की सीमा से बाहर छोड़ दिया जाता है।  राजा भटकते हुए वहाँ से किसी और नगर में पहुँच जाते है।

राजा विक्रमादित्य की ऐसी दशा देखकर एक तेली को उन पर दया आ जाती है।  तेली राजा को कोल्हू पर बैठने का काम दे देता है।  राजा वहाँ बैठ कर बैलों को गीत सुनाता रहता और तेली के बैल कोल्हू को चलाते रहते।  

तेली को अपने काम में सहायता मिल गई, इसलिये वह भी खुश था, वह राजा के भोजन का प्रबंध करता और राजा का ध्यान भी रखता था।  एक दिन विक्रमादित्य बैलों को गीत सुना रहे थे, उसी समय उस नगर की राज कन्या अपने रथ पर नगर भ्रमण को जा रही थी।  

उस के कानों में राजा के मधुर गीतों की ध्वनि पड़ती है, वह गीत सुन कर मुग्ध हो जाती है।  राज कन्या को विक्रमादित्य के स्वरों से प्रेम हो जाता है, वह उन्हें बिना देखे ही उनसे विवाह का निश्चय कर लेती है।  

वह अपने माता-पिता को अपना निर्णय सुना देती है।  राजा रानी पुत्री की इच्छा मान लेते है तथा सैनिकों को उस मधुर गीत गाने वाले का पता लगाने को भेजते है।  

सैनिक विक्रमादित्य का पता लगा लेते है तथा राजा को उनके अपंग होने की सूचना भी दे देते है।  राजा यह सुनकर बहुत चिंतित होते है तथा अपनी पुत्री को समझाते है कि वह उस अपंग व्यक्ति से विवाह की इच्छा त्याग दे, किन्तु राजकुमारी अपने निर्णय से पीछे नही हटती तथा विवाह की हठ करके अन्न-जल त्याग देती है।  

दुखी होकर राजा-रानी को उसका विवाह विक्रमादित्य से ही करना पड़ता है।  विवाह के पश्चात राजकुमारी भी विक्रमादित्य के साथ तेली के घर में रहने आ गई।  उसी रात राजा को स्वप्न में शनिदेव ने दर्शन दिये।    

शनिदेव ने कहा, राजन! भाग्य वश तुम्हें साड़सती का प्रकोप भुगतना पड़ा, मेरे अपमान के कारण तुम्हे यह दुर्भाग्य प्राप्त हुआ।  किंतु अब तुम्हारी साड़सती समाप्त हो गई है, मेरा तुम पर जो क्रोध था वह शान्त हो चुका है।  तुम सचमुच बहुत योग्य हो।  

राजा ने शनिदेव से क्षमा माँगी, हे शनिदेव! मुझसे अज्ञानवश जो आपका अपमान हुआ है, उसके लिये मुझे क्षमादान दीजिये।  आप ही मनुष्य को सौभाग्यवान अथवा दुर्भाग्यवान बनाने की क्षमता रखते है।  आपकी शक्ति तथा योग्यता अतुल्य है।   निसन्देह आप ही ग्रहों में सबसे बड़े कहलाने योग्य है।  

शनिदेव प्रसन्न होकर विक्रमादित्य को आशीर्वाद देते है, तथा कहते है, वत्स मैं तुमसे प्रसन्न हूँ, तुम्हारी जो इच्छा हो, वरदान मांग लो।  विक्रमादित्य कहते है, हे शनि महाराज! जैसा दंड आपने मुझे दिया, वैसा पुन: किसी भी मनुष्य को मत देना।  

शनिदेव ने कहा, जैसी तुम्हारी इच्छा है, वैसा ही होगा, राजन! तुम सचमुच संसार में पूजनीय होने के योग्य हो, तुमने स्वयं के लिये कुछ भी नही मांगा।  

मैं ऐसा दंड भविष्य में किसी को नही दूंगा तथा जो भी मनुष्य साड़सती के काल में मेरे व्रत तथा कथा पाठ करेगा, उसे मैं साड़सती में भी सुफल प्रदान करुन्गा।  

फिर विक्रमादित्य निद्रा से जाग जाते है।  वह यह देख कर आश्चर्य तथा प्रसन्नता से खिल उठते है कि शनिदेव की कृपा से उनके हाथ-पैर उन्हें वापिस मिल गए है।  

वह अपनी पत्नी के साथ उसके माता-पिता से मिलने जाते है, तथा उन्हें अपना वास्तविक परिचय देते है।  सभी को विक्रमादित्य के राजा होने की बात जानकर बड़ी प्रसन्नता होती है।  

जब व्यापारी को इस बात का पता चलता है, कि वह चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्य है, जिन पर उसने चोरी का आरोप लगाया था, तो वह उनसे क्षमा माँगने आता है तथा उन्हें फिर से अपने घर भोजन के लिये आमंत्रित करता है।  

राजा विक्रमादित्य उसे क्षमा कर देते है तथा उसके घर भोजन करने चले जाते है।  वह व्यापारी के घर भोजन करने बैठते है, तो फिर से उनकी दृष्टि उस खूँटी पर पड़ती है,  उसी समय सब देखते है कि वह खूँटी हीरों का हार उगल रही है। 

उस व्यापारी ने भी अपनी पुत्री का विवाह विक्रमादित्य से कर दिया।  राजा विक्रमादित्य अपनी दोनो पत्नियों को लेकर उज्जैन पहुँचे।  सभी प्रजाजन अपने राजा को वापिस आया देख कर हर्षित हो उठे।  सभी ने राजा तथा दोनो रानियों का स्वागत धूमधाम से किया।  

राजा ने पूरे राज्य में घोषणा करवा दी कि शनिदेव सभी देवों में श्रेष्ठ है तथा आज से राज्य में सभी शनिदेव का व्रत रखेंगे।  शनिदेव ने प्रसन्न होकर राजा विक्रमादित्य तथा पूरे उज्जैन राज्य को आशीर्वाद दिया।  

सभी प्रजाजन राजा की आज्ञानुसार शनिदेव के व्रत का पालन करने लगे तथा शनिदेव की कृपा से सभी सुखमय जीवन व्यतीत करने लगे। 

शनिवार व्रत विधि

शनिवार के दिन ब्रह्म मुहूर्त में उठकर सूर्योदय से पहले ही पूजा करनी चाहियें।

शनिदेव की लोहे की मूर्ति पूजा के स्थान पर एक थाली में स्थापित करें।

शनिदेव पर सरसों का तेल चढ़ाएं।

उनके आगे धूप तथा सरसों के तेल का दीपक प्रज्ज्वलित करें। 

शनिदेव को एक काला वस्त्र, काले तिल, काले चने तथा साबुत उड़द अर्पित करें।

शनिदेव की कथा तथा आरती करें। 

पूजा के उपरांत सूर्यदेव को जल अर्पित करें।

जो भी काली वस्तुएं शनिदेव को अर्पित की गई थी, वह किसी गरीब व्यक्ति को दान कर दें। 

इस दिन पीपल में जल अर्पित करें।

उसके बाद पूरा दिन उपवास रखें।

शाम के समय शनिदेव की पुन: पूजा करें।

शनिदेव के आगे सरसों के तेल का दिया जला दें तथा एक दिया पीपल के पास भी रख कर आयें।

सन्ध्या पूजा के पश्चात सात्विक भोजन ग्रहण करें।

व्रती व्यक्ति को इस दिन काले खाद्य पदार्थ खाने चाहियें, जैसे उरद की दाल की खिचड़ी या उरद की दाल और रोटी, काले चने की सब्ज़ी, काले तिल के लड्डू, आदि।  इस दिन सफेद खाद्य पदार्थ ग्रहण न करें। 

शनिदेव की साड़सती के समय क्या करें?

जिन लोगों पर साड़सती चल रही हो, उन्हें शनिवार का व्रत अवश्य करना चाहियें।

सुबह तथा शाम की पूजा तथा व्रत के सभी नियमों के साथ-साथ उन्हें शनिवार की मध्य रात्रि में अर्थात 12 बजे भी शनिदेव की पूजा तथा कथा करनी चाहियें।  

शनिदेव के आगे धूप तथा तेल का दीपक जला कर रखें, तथा कथा का पाठ करें।

मंगलवार तथा शनिवार को हनुमान चालीसा का पाठ करने से शनिदेव की कृपा प्राप्त होती है।

सोमवार तथा शनिवार को शिवलिंग पर काले तिल युक्त जल अर्पित करने से शनिदेव का प्रकोप शान्त होता है।

इसके अतिरिक्त शनिवार को गरीब लोगो को काली वस्तुओं तथा सरसो के तेल का दान करें, चींटियों को आटा डालें, काली गाय तथा काले कुत्ते को रोटी खिलाए।  

इन सब कार्यों से शनिदेव की कृपा प्राप्त होती है तथा साड़सती के कुप्रभाव से मुक्ति मिलती है।

शनिवार व्रत का उद्यापन

शनिवार के व्रत 7, 17, 37 या 57  शनिवार तक रखने चाहियें।  उसके बाद उद्यापन कर देना चाहियें।

उद्यापन के दिन भी शनिदेव की विधिपूर्वक पूजा करें तथा कथा पढ़ें। 

इस दिन शमी वृक्ष की पूजा करें।

इस दिन हवन करायें, हवन में भी शमी की लकड़ी प्रयोग करनी चाहियें।

हवन पूजन के बाद यथा संभव काली वस्तुओं का दान करें। 

काले चने तथा हलवे का प्रसाद बना कर शनिदेव के मन्दिर में भोग लगायें तथा अधिक से अधिक लोगो में बाँटे।

हर शनिवार की तरह उद्यापन के दिन भी पीपल को जल अवश्य चढ़ाएं तथा संध्या दीपक जलाएं।










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