शुक्रवार का दिन संतोषी माता तथा लक्ष्मी माता दोनो की पूजा का विशेष दिन है। इस लेख में हम संतोषी माता व्रत की चर्चा करेंगे।
इस दिन संतोषी माता का व्रत रखने वाले भक्तो की सभी मनोवान्छित कामनाएं पूर्ण होती है। संतोषी माता दुर्गा माता का ही एक रूप है। यह देवी का सबसे सौम्य रूप माना जाता है।
संतोषी माता के व्रत के बारे में माना जाता है कि इन व्रतों को करने से तीन माह के भीतर मनुष्य की इच्छा पूरी हो जाती है, परंतु यदि भाग्य साथ न दे, तो एक वर्ष तक व्रत करने से अवश्य ही अभीष्ट की प्राप्ति होती है।
संतोषी माता का व्रत वैसे तो बिल्कुल सरल है, बस इसमें केवल खटाई न खाने का मुख्य नियम है जिसका विशेष ध्यान रखने की आवश्यकता होती है।
आइए जानते है, कि संतोषी माता की उत्पत्ति कैसे हुई।
संतोषी माता की उत्पत्ति की कथा
संतोषी माता की उत्पत्ति के बारे में पुराणो में एक कथा का उल्लेख मिलता है। कथा इस प्रकार है कि भगवान गणेश का विवाह प्रजापति की दो पुत्रियों रिद्धि तथा सिद्धि से हुआ था।
सिद्धि तथा रिद्धि ने दो पुत्रों को जन्म दिया। सिद्धि के पुत्र का नाम शुभ रखा गया तथा रिद्धि के पुत्र का नाम लाभ रखा गया।
एक बार जब वह दोनो बालक देखते है, कि उनके पिता गणेश को उनकी बुआ रक्षा सूत्र बाँधती है तथा उन दोनो को भी रक्षा सूत्र बांधती है, तो वह दोनो इसके बारे में अपने पिता से प्रश्न करते है।
पिता गणेश उन्हें बताते है कि यह रक्षा सूत्र भाई बहन के अटूट प्रेम का प्रतीक है। यह सुनकर वह दोनो हठ करते है कि हमें भी एक बहन चाहियें जो हमें रक्षा सूत्र बांधा करे।
उनके हठ के कारण गणेश जी ने अपनी दिव्य शक्ति से संतोषी माता को अवतरित किया। इसलिये रिद्धि तथा सिद्धि दोनो को ही उनकी माता माना जाता है।
संतोषी माता व्रत कथा
एक बुढ़िया के सात पुत्र थे। सातो में से छह कमाते थे तथा सबसे छोटा कुछ कमाता नही था। बुढ़िया अपने लड़को को खुद भोजन परोसती थी।
वह छहो लड़को को बुला-बुला कर आग्रह कर-कर के प्रेम से खिलाती थी तथा उन सब की थाली में जो भी जूठा भोजन बच जाता था वह एक थाली में इकट्ठा कर लेती थी।
फिर वह भोजन सातवे पुत्र को बुला कर खिला देती थी। उसकी पत्नी यह सब देखती थी। एक दिन सातवा पुत्र अपनी पत्नी से कहने लगा देखो, मेरी माँ मुझसे कितना प्रेम करती है।
इस पर पत्नी ने कह दिया कि तुम्हारी माँ सबका झूठा तुम्हें परोसती है। यह सुनकर पुत्र को विश्वास नही हुआ। उसने कहा देखूँगा तो मानूँगा।
कुछ दिनों बाद कोई त्यौहार आया। घर में बहुत से पकवान तथा चूरमे के लड्डू बने। सातवा पुत्र सिर के दर्द का बहाना बना कर रसोई में जाकर लेट गया। उसने एक पतली चादर ओढ़ ली और उसमें से सबकुछ देखता रहा।
उसने देखा कि उसकी माँ ने छहो भाईयों के लिये सुंदर आसन लगाये। बड़े प्रेम से सबको भोजन परोसा तथा चूरमे के लड्डू खिलाए।
जब सब भोजन कर के चले गए, तब उसकी माँ ने उनका जूठा भोजन इकठ्ठा करके थाली तैयार की, उनके बचे हुए लड्डुओं के चूरे को समेट कर एक बड़ा लड्डू बना दिया।
फिर उसको पुकारने लगी। बेटा, उठ जा, तेरे सब भाईयों ने भोजन कर लिया, अब तू भी भोजन कर ले। यह सब देख कर उसका मन खिन्न हो गया था, वह अपनी माँ से बोला, माँ मुझे भूख नही है, मैं परदेस जाना चाहता हूँ।
उसकी माँ कहने लगी कल जाने से अच्छा आज ही चला जा। वह बोला, हाँ, माँ, आज ही जा रहा हूँ, यह कहकर वह घर से निकल पड़ा। फिर उसने सोचा कि जाने से पहले अपनी पत्नी से मिल लूं।
उसकी पत्नी गौशाला में गोबर के उपले थाप रही थी। वह उससे कहता है कि मैं परदेस जा रहा हूँ। तुम अपने धर्म का पालन करती रहना। उसकी पत्नी कहती है, कि जाने से पहले मुझे अपनी कोई निशानी दे जाईये।
वह उसे अपनी अंगुली में से अंगूठी निकाल कर दे देता है। फिर वह कहता है कि तुम भी मुझे अपनी कोई निशानी दे दो। पत्नी बोली, मेरे पास तो आपको देने के लिये कुछ भी नही है। मैं अपने हाथ की निशानी ही दे देती हूँ।
फिर अपने गोबर से सने हाथ से उसकी पीठ पर अपने हाथ की छाप बना देती है। वह चला जाता है। यात्रा करते-करते बहुत दूर किसी और नगर में पहुंच जाता है।
वहाँ उसे एक साहुकार मिलता है। वह उससे कोई काम माँगने लगता है। साहुकार को अपने व्यवसाय के लिये एक नौकर की आवश्यकता थी, साहुकार ने उसे काम पर रख लिया।
वह बहुत मन लगा कर अपना काम करने लगा। कुछ ही दिनों में वह सारा काम सीख गया। वह सारा दिन काम करता रहता था। धीरे-धीरे साहुकार ने उसका वेतन भी बढ़ा दिया।
उसकी कार्य-कुशलता और काम के प्रति लगन देख कर कुछ समय बाद साहुकार ने उसे अपने व्यवसाय में सांझेदार बना लिया। कुछ ही वर्षों में वह नगर के सबसे धनी लोगो में से एक बन गया था।
दूसरी ओर उसके घर पर उसकी पत्नी से सब बहुत बुरा व्यवहार करते थे। उसकी सास उससे सारा काम करवाती थी। उसे जंगल में लकड़ियां काटने भेजती थी, तब जा कर उसे रूखा-सूखा भोजन मिलता था।
उसे नारियल के खोल में पानी दिया जाता था और आटा छानकर जो चोकर निकलता था, उसकी रोटी बनाकर दी जाती थी। उसने भी इस सब को अपनी नियति मान लिया था।
वह रोज़ लकड़ियाँ काट कर लाती और आवाज़ लगाती थी, सासू माँ, लकड़ियाँ लो, भूसी की रोटी दो, नारियल के खोपरे में पानी दो। तब कहीं जाकर उसे भोजन मिलता था।
एक दिन वह जंगल में लकड़ियां काटने गई तो उसने मार्ग में कुछ स्त्रियों को संतोषी माता की पूजा करते देखा। वह उनसे पूछने लगी, कि तुम लोग किस देवता की पूजा कर रहे हो?
वह स्त्रियाँ बोली, कि हम लोग संतोषी माता के व्रत का पूजन कर रही है। इस व्रत के करने से जीवन के सभी दुख नष्ट हो जाते है, संतोषी माता सबके कष्ट हरती है।
बहू बोली, मुझे भी इस व्रत की विधि बताओ मैं भी इसे करना चाहती हूँ। वह स्त्रियाँ उसे विधि बताती है।
बहन, सवा आने का या सवा पाँच आने का गुड़ और चना माता के प्रसाद के लिये ले लेना तथा हर शुक्रवार को संतोषी माता की कथा का पाठ करना।
यदि कोई कथा सुनने वाला न मिले तो पूजा में रखे घी के दीपक तथा जल के कलश को ही कथा सुनाना। माता संतोषी बहुत दयालु है, हर किसी की इच्छा तीन मास के भीतर पूरी करती है।
यदि कोई बहुत दुर्भाग्यवान हो तो भी एक वर्ष के भीतर मनोवान्छित इच्छा पूरी होती है। जब इच्छा पूरी हो जाए तब व्रत का उद्यापन कर देना।
उद्यापन के लिये खीर, पूरी, चने का भोजन बनाकर आठ छोटे लड़को को भोजन कराना। शुक्रवार के दिन घर में कोई भी सदस्य खटाई मत खाना।
बहू ने जो लकड़ियां काटी थी उन्हें बेचकर गुड़,चने का प्रबंध कर लेती है। तथा व्रत प्रारंभ कर देती है।
एक शुक्रवार बीतता है, फिर दूसरे शुक्रवार को ही उसके पति का पत्र आता है तथा तीसरे शुक्रवार को उसके पति के द्वारा भेजा गया धन उसे प्राप्त होता है।
यह देख कर घर के सभी लोग उससे ईर्ष्या करने लगते है तथा उसका मज़ाक उड़ाने लगते है। वह संतोषी माता के मन्दिर में जाकर रो-रो कर प्रार्थना करती है कि हे देवी माँ, मुझे धन की आवश्यकता नही है, बस मुझे मेरे पति से मिला दो। मैं उनके बिना अब और जीवित नही रह सकती।
माता को उस पर दया आ गई। माता ने उसे दर्शन देकर कहा, जा पुत्री, तेरा पति शीघ्र ही वापिस आयेगा। यह सुनकर वह बहुत प्रसन्न हुई तथा घर जा कर काम निबटाने लगी।
संतोषी माता ने मन में विचार किया कि इसका पति तो इसे स्मरण ही नही करता, उसे स्मरण करवाना होगा। संतोषी माता उसके पति को स्वप्न में दर्शन देती है तथा उससे कहती है, हे पुत्र! तेरी पत्नी बहुत दुख भुगत रही है, जा कर उसकी सुध ले।
वह बोला, माता मैं काम-काज में फंसा हुआ हूँ। यह सब छोड़ कर मैं उसके पास कैसे जाऊं? संतोषी माता बोली, पुत्र! कल प्रात: स्नान कर के अपने कार्यस्थल पर घी का दीपक जला कर संतोषी माता का स्मरण कर के दंडवत प्रणाम करना तेरे सारे रुके हुए काम पूरे हो जायेंगे।
उसने अगले दिन ऐसा ही किया। स्नान कर के अपने कार्यस्थल पर उसने घी का दीपक जला कर संतोषी माता को दंडवत प्रणाम किया तथा नित्य की भांति अपने काम में लग गया।
कुछ ही देर में सभी देनदार जितना धन देना था, आ-आकर देने लगे तथा जिनका लेने का हिसाब था, वह भी आकर अपना हिसाब करने लगे। जितना भी माल गोदाम में बिकने के लिये रखा था उसे नकद खरीदने वाले आने लगे।
इस प्रकार संध्या होने तक उसका सारा लेन-देन का हिसाब भी चुकता हो गया तथा बहुत सारा धन एकत्र हो गया। वह बहुत प्रसन्न हुआ तथा अगले ही दिन अपने नगर की ओर चल पड़ा।
उसकी पत्नी जंगल में लकड़ियां काट रही थी। लकड़ियां काटने के बाद रोज़ वह संतोषी माता के मंदिर में थोड़ी देर विश्राम किया करती थी। उस दिन भी वह विश्राम करने के लिये मन्दिर में बैठ गई।
तभी उसे धूल उड़ती दिखाई दी। वह माता से पूछने लगी हे माता, यह धूल कैसे उड़ रही है? क्या कोई इस ओर आ रहा है?
संतोषी माता बोली, हाँ पुत्री, तेरा पति आ रहा है। अब तू एक काम कर, लकड़ियों के तीन गट्ठर बना। एक नदी के किनारे रख दे, एक मेरे मन्दिर पर छोड़ दे, तथा एक अपने साथ लेकर घर जा।
जब तेरा पति घर पहुँचे तो उसी के सामने लकड़ी का गट्ठर लेकर घर के आंगन मे डालना और रोज़ जैसे रोटी-पानी अपनी सास से मांगती है वैसे ही माँगना।
वह ऐसा ही करती है। एक गट्ठर नदी पर छोड़ती है, एक मन्दिर पर तथा एक अपने सिर पर रख कर घर की ओर जाती है।
उसका पति जब नदी के पास से गुज़रता है तो सूखी लकड़ियाँ देखकर उसके मन में विचार आता है कि कुछ भोजन बना कर खा-पी कर विश्राम कर के फिर घर जाऊंगा।
वह नदी पर हाथ-मुहँ धो कर लकड़ियाँ जला कर भोजन बनाने लगता है। भोजन करके तथा कुछ देर विश्राम कर के वह प्रसन्न मन से घर की ओर चलता है।
घर पहुँच कर वह सबसे मिलता है, पर उसे अपनी पत्नी कहीं नही दिखाई देती। तभी उसकी पत्नी आती है और आंगन में लकड़ियों का गट्ठर डाल कर आवाज़ लगाती है, सासू माँ, लकड़ियाँ लो, भूसी की रोटी दो, नारियल के खोपरे में पानी दो, आज मेहमान कौन आया है?
बहू की सूरत पहचानने योग्य नही थी। लेकिन उसका पति उसके हाथ में अपनी दी हुई अंगूठी देखकर उसे पहचान लेता है। परंतु जान-बूझ कर माँ से पूछता है, माँ यह कौन है?
उसकी माँ अपना भेद खुलने के डर से बाते बनाने लगती है। बेटा, यह तेरी ही पत्नी है, जब से तू गया है तब से घर का कुछ काम नही करती और दिन भर यूँ ही पागलो की तरह भटकती रहती है, फिर अपने पुत्र को दिखाने के लिये बहू से प्यार से बात करने लगती है, अरे बहू, ऐसा क्यो कहती है, आ बैठ भोजन कर, अच्छे कपड़े और गहने पहन ले।
बुढ़िया का पुत्र यह सब देख कर माँ से कहता है कि मुझे दूसरे घर की चाबी दो, अब मैं वहीं रहूँगा। वह माँ से चाबी लेकर दूसरे घर में रहने लगता है।
धन की उसके पास कोई कमी नही थी वह सुविधाओं की सभी साधन जुटा लेता है और उसकी पत्नी सुख से रहने लगती है। फिर वह अपने पति से कहती है कि यह सब संतोषी माता की कृपा से हुआ है, इसलिये अब मुझे माता के व्रत का उद्यापन करना है।
अगले शुक्रवार को वह उद्यापन की तैयारी कर लेती है तथा जेठानियों के लड़को को भोजन के लिये बुला लेती है। जेठानियां अपने बच्चों से कहती है कि भोजन के समय खटाई माँगना।
बच्चे पहले पेट भर के खीर, पूरी खाते है फिर उनको अपनी माताओं की बात याद आती है और वह कुछ खट्टा खाने के लिये माँगने लगते है। बहू कहती है, कि संतोषी माता के व्रत के उद्यापन में खट्टा नही मिलेगा।
फिर बच्चे उससे पैसे माँगने लगते है। वह पैसे दे देती है। बच्चे बाज़ार से खटाई खरीद कर खा लेते है। इससे उसका उद्यापन भंग हो जाता है। तभी कुछ राजदूत आकर उसके पति को पकड़ कर ले जाते है।
जेठ-जेठानी ताने मारने लगते है कि ज़रूर उसने बेईमानी से धन इकट्ठा किया होगा तभी राजा ने दंड देने के लिये बुलाया है। बहू संतोषी माता के चरणो में गिरकर रोने लगी, हे माता, मुझसे कोई अपराध हुआ है तो क्षमा करो।
माता बोली, पुत्री, तुझसे भूल हो गई है, तूने मेरा उद्यापन भंग किया है। वह बोली माता मैं नियम भूल गई थी, मैं फिर से उद्यापन करूंगी। माता बोली, जा तेरा पति तुझे रास्ते में आता मिलेगा।
वह अपने पति को लेने जाती है तो उसका पति सचमुच रास्ते में आता हुआ मिलता है, वह पूछती है कि राजा ने क्यों बुलाया था तो वह कहता है कि जो धन कमाया है उसका कर देने के लिये बुलाया था।
फिर दोनो घर आ जाते है। अगले शुक्रवार को वह फिर उद्यापन की तैयारी करती है, इस बार भी वह जेठानियों के लड़को को बुलाती है। लडके अपनी माताओं के सिखाये में आकर भोजन से पहले ही खटाई माँगने लगते है।
वह मना कर देती है और ब्राह्मणो के लड़को को बुला कर भोजन करा देती है तथा दक्षिणा में धन के स्थान पर फल देती है। इस प्रकार उसका उद्यापन पूर्ण हो जाता है।
संतोषी माता उससे प्रसन्न हो जाती है। कुछ समय पश्चात संतोषी माता की कृपा से उसे एक सुंदर पुत्र प्राप्त होता है। पुत्र पा कर बहू खुशी से फूली नही समाती। वह नित्य पुत्र को लेकर संतोषी माता के मन्दिर जाती थी।
एक दिन माता ने सोचा, कि यह रोज़ आती है, आज मैं ही इसके घर चलूँ और इसकी भक्ति की परीक्षा लूँ। यह सोचकर माता संतोषी ने भयंकर रूप धारण किया।
सूंड के समान होंठ और गुड़, चने से सना मुख तथा मुख पर मक्खियां भिनभिना रही थी। ऐसा विचित्र रूप बना कर माता ने जैसे ही उसके द्वार पर पैर रखा उसकी सास डर से चिल्लाने लगी।
अरे, देखो कोई चुड़ैल आ गई है, किसी बच्चे को खा जायेगी, कोई इसे भगाओ। सब घर के खिड़की दरवाज़े बन्द करने लगे। तभी बहू ने अपनी खिड़की से झाँक कर देखा, तो देखते ही चिल्लाई, अरे ये तो मेरी संतोषी माता है, यह कहकर माता के पास दौडी चली आई।
वह माता के चरणो में प्रणाम कर के अपनी सास से बोली, सासू माँ, यही मेरी संतोषी माता है। सब माता के चरणो में गिरकर अपने अपराधो के लिये क्षमा माँगने लगे।
माता ने सबको अपने सौम्य रूप में दर्शन दिये तथा सबके अपराध क्षमा कर दिये। जैसे बहू की कामना पूरी हुई वैसे ही संतोषी माता सबकी कामनाएं पूरी करें। जय संतोषी माँ।
संतोषी माता व्रत की विधि
यह व्रत किसी भी माह के शुक्ल पक्ष में प्रारम्भ किये जा सकते है।
शुक्रवार के दिन प्रात: स्नानादि से निवृत्त होकर पूजा के स्थान को साफ कर लें।
फिर एक चौकी पर लाल वस्त्र बिछा कर संतोषी माता की प्रतिमा स्थापित करें।
एक जल का कलश भर के रखे तथा कलश पर एक कटोरी रखें, कटोरी में गुड़ तथा भुने हुए चने रख लें।
धूप तथा दीपक जला कर रखें।
शुक्रवार व्रत की कथा का पाठ करें तथा माता की आरती करें।
माता को गुड़ तथा चने का भोग लगायें।
परिवार के उन्हीं सदस्यों को प्रसाद दें, जो पूरा दिन खटाई खाने का परहेज कर सकते हों।
इस दिन संध्याकाल तक उपवास रखें। संध्या समय में गुड़ तथा चने का प्रसाद खा कर व्रत खोलें।
व्रत खोलने के बाद सात्विक भोजन ग्रहण करें।
भोजन में कोई खट्टा पदार्थ न हो, इस बात का विशेष ध्यान रखें।
संतोषी माता व्रत की उद्यापन विधि
यह व्रत कम से कम 16 अवश्य रखे जाते है। यदि 16 व्रत से पहले ही मनोकामना पूर्ण हो जाए तो भी 16 व्रत पूर्ण करें उसके बाद सत्रहवे शुक्रवार को उद्यापन करें।
इस दिन भी हर शुक्रवार की तरह माता संतोषी की पूजा तथा कथा करें।
उद्यापन के दिन खीर, काले चने तथा सवा किलो आटे की पूरियां बना लें।
आठ छोटे लड़कों को भोजन करायें।
भोजन के बाद दक्षिणा स्वरूप एक-एक केला दें। दक्षिणा में धन न दें।
व्रती व्यक्ति उद्यापन के दिन केवल एक बार ही भोजन करे।
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