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जानिए गोवर्धन पूजा की पूरी कथा


गोवर्धन पूजा का पर्व दीपावली से अगले दिन मनाया जाता है।  यह हिंदुओं का पवित्र त्यौहार है और पूरे भारत में भक्ति-भाव से मनाया जाता है।  


गोवर्धन एक पर्वत का नाम है जो कि भारत के उत्तर प्रदेश में मथुरा में स्थित है।  गोवर्धन पूजा के दिन इसी पर्वत की पूजा करने का विधान है।  

इस पर्व के इतिहास में कृष्ण के अवतार काल से जुड़ी हुई एक कथा है। आइए जानते है इस कथा के बारे में -






govardhan puja









गोवर्धन पूजा की कथा

यह कथा श्री कृष्ण के बाल्य काल की है। उस समय दीपावली के अगले दिन इन्द्र पूजा की जाती थी।  हवन आदि किया जाता था और इन्द्र से वर्षा का वरदान मांगा जाता था।  

कृष्ण ने इस पूजा पर आपत्ति उठाई।  उन्होने अपने नंद बाबा और अन्य सभी को भी समझाया कि इन्द्र की पूजा क्यों करते है, इसके बजाए गोवर्धन पर्वत की पूजा करो।  

यह हरियाली से भरपूर है और यहाँ हमारी गायों और अन्य जीव-जन्तुओं को आहार और बहुत से जीवो को आश्रय मिलता है।  यह सही अर्थो में पूजन के योग्य है।  

सभी लोगो ने कृष्ण को समझाया, कि अगर हम इन्द्र की पूजा नही करेंगे तो वह कुपित हो जाएंगे और वर्षा नही करेंगे।  कृष्ण ने कहा कि वह वर्षा क्यों नही करेंगे, यह तो उनका कर्तव्य है। 
 
उन्हें यह कार्य परम शक्ति भगवान विष्णु ने दिया है।  उसके लिये उनकी पूजा और हवन की कोई आवश्यकता नही है, इसलिये आज से हम सब इस दिन गोवर्धन की पूजा किया करेंगे।  

भले ही कृष्ण उस समय बालक थे लेकिन वह उस समय तक कई राक्षसों का वध कर के साधारण जनो के बीच अपना प्रभाव बना चुके थे। 

इसलिये उनकी बात मान कर सबने उस दिन गोवर्धन पर्वत की पूजा की। 

वास्तव में यह कृष्ण की एक लीला थी।  कृष्ण रूपी भगवान विष्णु यह जानते थे कि इन्द्र के मन में देव राज होने का अहंकार आ गया है और वह अपना कर्तव्य निर्वाह ठीक से नही कर रहे है।  

इसलिये उनके अहंकार को नष्ट करने के लिये उन्होने यह लीला रची। 

गाँव वालो को इन्द्र पूजा की बजाए गोवर्धन पूजा करते देख कर इन्द्र का क्रोध सातवे आसमान पर पहुँच गया और उन्होने ऐसी भीषण वर्षा की जिससे मथुरा नगरी के डूबने का डर था। 

सभी गाँव वाले इस वर्षा के लिये कृष्ण को दोष देने लगे।  कृष्ण ने उन्हें धैर्य धारण करने के लिये कहा।  उन्होने शेषनाग को आदेश दिया कि वह मथुरा के चारो ओर घेरा मार कर बैठ जाए ताकि पानी मथुरा में भर न पाए।  

और फिर उन्होने गोवर्धन पर्वत को अपनी बायें हाथ की कनिष्ठा अंगुली पर उठा लिया।  

उन्होने सब से कहा कि अपने सभी ज़रूरी सामानो के साथ पर्वत के नीचे आ जाएं।  सभी गाँव वाले और जीव जन्तु पर्वत के नीचे आ गए।  

कृष्ण की सहायता के लिये अन्य ग्वालों ने भी अपनी लाठियां पर्वत के नीचे लगा दी।  

इन्द्र सात दिन तक लगातार वर्षा करते रहे और आखिर वह वर्षा करते-करते थक गए।  जब वर्षा रुक गई, तो कृष्ण ने सभी को पर्वत के नीचे से निकलने को कहा। सभी लोग निकल गए।

 ग्वालों ने कहा कि  कृष्ण पहले तुम निकल जाओ, फिर हम निकल आयेंगे।  कृष्ण ने जैसे ही अपनी अंगुली थोड़ी सी हटाई तो पर्वत नीचे गिरने लगा।  

फिर कृष्ण बोले मैने कहा था न,  कि  पहले आप सब निकल जाओ  फिर मैं निकल आऊंगा।  सब ग्वाले समझ गए कि पर्वत उनकी लाठियों पर नही बल्कि केवल कृष्ण की अंगुली पर टिका हुआ है।   

सब के बाहर आने के बाद कृष्ण ने पर्वत को यथास्थान रख दिया।  

जब इन्द्र को पता चला कि मथुरा पूरी तरह सुरक्षित है और एक बालक ने उनकी रक्षा की है तो वह चकित रह गए।  उन्होने प्रजापिता ब्रह्मा जी को अपनी शंका बताई तो ब्रह्मा जी ने इन्द्र को सत्य से अवगत कराया।  

इन्द्र को जब पता चला की कृष्ण भगवान विष्णु का अवतार है तो वह तुरंत ही कृष्ण के पास अपने अपराध की क्षमा मांगने पहुँचे।  

कृष्ण ने उन्हें क्षमा कर दिया और सदा बिना किसी अपेक्षा के अपने कर्तव्य को निष्ठा के साथ निर्वाह करने का उपदेश दिया।  
उसके बाद प्रतिवर्ष दीपावली के अगले दिन प्रतिपदा तिथि को गोवर्धन पूजा की जाने लगी।


गोवर्धन पूजा कैसे करते है?

गोवर्धन पूजा संध्या काल में की जाती है।

गोवर्धन पूजा के दिन ही  प्रात: काल में विश्वकर्मा पूजा की जाती है।  विश्वकर्मा पूजा की जानकारी के लिये 
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गोवर्धन के दिन सन्ध्या काल के समय घर के आंगन में गाय के गोबर से गोवर्धन पर्वत उठाए हुए श्री कृष्ण की सांकेतिक आकृति बनाई जाती है। 

साथ में गायें और ग्वाल बाल भी बनाएं जाते है।  

कृष्ण की आकृति की नाभि के स्थान पर एक कटोरी में दूध, दही, गंगाजल, तुलसी और शहद मिला कर पंचामृत रखा जाता है तथा बताशे रखे जाते है।  

उनके चरणो के पास मिट्टी का दिया जलाया जाता है।

इस दिन श्री कृष्ण को भोग लगाने के लिये 56 प्रकार के व्यंजन बनाने का भी विधान है।  

मन्दिरों में श्री कृष्ण को 56 भोगो से भोग लगाया जाता है।  

घरों में जितने व्यंजन आप सरलता बना सके उतने ही बना लें।
  
गोवर्धन पर्वत की हाथ में जल का लोटा ले कर जल चढ़ाते हुए सात परिक्रमा लगायें।  

फिर भगवान कृष्ण की आकृति को भोग लगायें।  उनकी अंगुली पर स्थित गोवर्धन पर्वत को  तथा गायें और ग्वाल बालों की आकृति को भी भोग लगायें।  

फिर उनकी नाभि पर रखे पंचामृत और बताशों को प्रसाद रूप में वितरित कर दें। 

इस दिन गायों की भी पूजा की जाती है। गायों को तिलक कर के आरती उतारी जाती है तथा उन्हें गुड़ तथा भगवान का प्रसाद खिलाया जाता है।

रात्रि में सरसों के तेल से भरे सात मिट्टी के दिये जला कर घर के बाहर रख दें।  

एक चौमुखा दिया यमराज के नाम का घर के बाहर दक्षिण दिशा में अवश्य रखें। 







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