नर्क चतुर्दशी का पर्व कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी के दिन मनाया जाता है। इसका एक अन्य नाम रूप चतुर्दशी भी है।
इस पर्व को हम आम तौर पर छोटी दीवाली कहते है। क्योंकि यह दीवाली से एक दिन पहले पड़ता है। इस दिन भी दीवाली की तरह ही घर को दियों से सजाया जाता है।
नर्क चतुर्दशी की कथाएं
नर्क चतुर्दशी से जुड़ी हुई पौराणिक कथाएं यहाँ दी जा रही है।
नरकासुर की कथा
इस पर्व का नाम नर्क चतुर्दशी होने के पीछे एक कथा है। भौमासुर नामक एक राक्षस था, जो कि भूमि अर्थात पृथ्वी का पुत्र था।
उसके दुष्कर्मों के कारण उसका नाम नरकासुर पड़ गया था । उसने पृथ्वी पर सभी साधु जनो का जीना दूभर कर रखा था।
वह बहुत सी कन्याओं का अपहरण कर चुका था। उससे परेशान होकर इन्द्र सहित सभी देवता श्री कृष्ण से प्रार्थना करते है कि वह इस दुष्ट को उसके कर्मों का फल दें।
उसे स्त्री के कारण मरने का श्राप था। इसलिये भगवान कृष्ण सत्यभामा को अपने रथ का सारथी बनाते है और इस प्रकार एक स्त्री की सहायता से नरकासुर पर आक्रमण कर देते है।
भगवान कृष्ण उसकी सारी सेना को परास्त करके फिर सुदर्शन चक्र से उसका सिर धड़ से अलग कर देते है। उसके मरने के बाद सभी लोग सुख की साँस लेते है।
फिर श्री कृष्ण उन कन्याओं को स्वतंत्र कराते है, जिन्हें नरकासुर ने अपृहत कर के एक गुफा में बन्दी बना रखा था।
वह 16100 कन्यायें थी जो विभिन्न राज्यों की राजकुमारियां थी।
श्री कृष्ण ने उन्हें उनके परिवार के पास छोड़ने की जिम्मेदारी उठाई, लेकिन उन सभी ने अपने घर वापिस जाने से मना कर दिया। वह अपमानित जीवन जीने की बजाए मरने के लिये तत्पर थी।
तब श्री कृष्ण उन सभी को अपने साथ अपने राज्य द्वारिका ले आये। जहाँ वह स्वतन्त्रता और सम्मान के साथ रह सकती थी। उन सभी ने श्री कृष्ण को ही अपने जीवन का स्वामी स्वीकार किया। श्री कृष्ण ने विधिवत रूप से उन सभी कन्याओं का पाणि ग्रहण किया ताकि उन्हें समाज में एक सम्मानित स्थान प्राप्त हो सके।
वह सभी द्वारिका में भगवद भजन करते हुए अपना जीवन व्यतीत करने लगी।
इस तरह नरकासुर के मरने के बाद यह दिन नरक चतुर्दशी के रूप में मनाया जाने लगा।
रन्ति देव की कथा
इस पर्व के साथ राजा रन्तिदेव की कथा भी जुड़ी हुई है। जो कि एक महान दानी राजा थे। जब उनकी मृत्यु हुई तो यमदूत उन्हें नर्क में ले जाने लगे।
उन्होने पूछा कि मुझसे क्या अपराध हुआ है, जिसके कारण मुझे नर्क ले जा रहे हो। तब यमदूतों ने कहा कि एक बार एक भूखा भिखारी तुम्हारे द्वार से भूखा ही लौट गया था और तुमने उस पर ध्यान नही दिया था।
यह सुनकर रन्तिदेव यमराज से प्रार्थना करते है कि जो पुण्य कर्म उन्होने किये है उन्हें ध्यान में रखते हुए मुझे एक वर्ष का समय दीजिये ताकि मैं अपने पाप का निराकरण कर सकूं।
यमराज ने उनकी बात मान ली और उसे एक वर्ष के लिये वापिस जीवनदान दे दिया। फिर राजा ने सन्त पुरुषो से परामर्श कर के इसका उपाय जानने का प्रयास किया।
तब एक ऋषि ने उन्हें बताया कि कार्तिक कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को श्री कृष्ण का व्रत रखने से तुम्हारे पाप का नाश होगा। राजा ने ऐसा ही किया और फिर मृत्युपरांत वैकुण्ठ धाम को सिधारे।
नर्क चतुर्दशी को रूप चतुर्दशी भी कहते है क्योंकि श्री कृष्ण के व्रत से रूप की भी प्राप्ति होती है।
नर्क चतुर्दशी की पूजा विधि
इस दिन दीपावली की ही तरह लक्ष्मी गणेश और कृष्ण के रूप में विष्णु जी की पूजा की जाती है।
इस दिन सन्ध्या काल में 14 मिट्टी के दिये सरसो के तेल के साथ प्रज्ज्वलित करें।
दियों के साथ श्री कृष्ण और लक्ष्मी-गणेश की पूजा करें।
इस दिन भी दीवाली की तरह खील बताशों का प्रसाद चढ़ाएं। इस दिन श्रीकृष्ण का व्रत भी रखा जाता है।
यमराज के नाम का एक चौमुखा दिया जलाएं और उसे घर के बाहर दक्षिण दिशा में रखे।
दीपावली के पंच दिवसिए पर्व में हर दिन यमराज के नाम का चौमुखा दिया घर के बाहर दक्षिण दिशा में रखा जाता है।
नर्क चतुर्दशी का मह्त्व
नर्क का एक अर्थ गन्दगी भी होता है। इस तरह यह पर्व स्वच्छता के लिये भी महत्वपूर्ण है। इस दिन घर के एक-एक कोने से घर का सारा नर्क अर्थात गन्दगी को बाहर निकाल देना चाहिएं।
इस दिन से एक दिन पहले धन तेरस के दिन घर में नई झाडू लाई जाती है और उसकी भी पूजा की जाती है।
नर्क चतुर्दशी के दिन ध्यान दें कि घर में कही कोई गन्दगी बाकी न रह गई हो।
अगर हो तो उसे साफ अवश्य कर दें लेकिन पुरानी झाडू से ही करें। नर्क चतुर्दशी की रात को पुरानी झाडू को घर के चारो कोनो में छुआ कर फिर फैंक देते है।
इस प्रकार यह माना जाता है कि पुरानी झाडू से घर के हर कोने से दरिद्रता को बाहर निकाल कर फैंक दिया गया है। नर्क चतुर्दशी के अगले दिन दीपावली के दिन से नई झाडू का प्रयोग शुरु करना चाहियें।
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