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जानिए करवा चौथ की चार कथायें

करवा चौथ हिंदुओं का पवित्र पर्व है।  यह पूरे भारत में  बहुत उत्साह के साथ मनाया जाता है।  करवा चौथ का पर्व कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को मनाया जाता है।  

इस दिन सुहागन स्त्रियां अपने पति की दीर्घायु की कामना करते हुए व्रत रखती है। 

इस व्रत में माँ गौरी और गणेश जी की पूजा की जाती है। परंतु शंकर जी के बिना गौरी पूजन अधूरा है इसलिये शंकर जी की भी पूजा की जाती है।  

जैसे दीवाली के दिन  लक्ष्मी  पूजन करते है तो वह भी विष्णु जी की पूजा के बिना अधूरा रहता है।  गणेश जी प्रथम पूज्य देवता है इसलिये हर पूजा में उनका स्थान सर्वप्रथम होता है। 




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करवा चौथ की कथाएं

करवा चौथ के व्रत का प्रारंभ पार्वती माता ने किया।  सर्व प्रथम माता पार्वती ने अखंड सौभाग्य प्राप्ति के लिये कार्तिक चतुर्दशी व्रत किया। 

करवा चौथ की पहली कथा

एक बार देवासुर संग्राम के समय ब्रह्मा जी ने देवताओं की पत्नियों को परामर्श दिया कि अगर वह सभी अपने पतियों की दीर्घायु के लिये कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी का व्रत रखें, जिसे माँ गौरी ने भगवान शंकर के लिये रखा  था, तो वह अवश्य विजयी होंगे।  

देवताओं की पत्नियों ने ब्रह्मा जी की आज्ञानुसार चतुर्दशी व्रत का पालन किया और देवताओं ने युद्ध में विजय प्राप्त की।

करवा चौथ की दूसरी कथा

महाभारत की कथा के अनुसार महाभारत युद्ध से पहले अर्जुन नीलगिरि पर्वत पर तपस्या करने गए थे।  तपस्या के द्वारा वह दिव्य अस्त्र-शस्त्र प्राप्त करना चाहते थे जिनके द्वारा पांडवों को विजयी होने में सहायता मिले।  

जब उन्हें गए हुए बहुत दिन बीत गए तो द्रौपदी को उनकी चिंता होने लगी।  तब भगवान कृष्ण ने द्रौपदी से कहा कि वह अर्जुन की सकुशलता के लिये कार्तिक की कृष्ण चतुर्दशी का व्रत रखें।

फिर द्रौपदी ने ऐसा ही किया।  तभी से यह व्रत अधिक प्रचलन में आया।

करवा चौथ की तीसरी  कथा

एक करवा नाम की पतिव्रता स्त्री थी।  एक बार उसका पति नदी में स्नान करने के लिये जाता है और वहाँ एक मगरमच्छ उसका पैर पकड़ लेता है।

वह वेदना से चिल्ला कर अपनी पत्नी को पुकारता है।  उसकी पत्नी करवा दौडी चली आती है।  

उसे वहाँ कोई रस्सी आदि नही दिखाई देती।  केवल एक कच्चा सूत का धागा पड़ा होता है।  वह उस सूत को अपने पति की तरफ फैंकती है और वह सूत का एक सिरा पकड़ लेता है।  

करवा मन ही मन संकल्प करती है कि अगर उसका पतिव्रत धर्म अखंड है तो यह सूत भी अखंड रहे। और करवा दूसरा सिरा खींचने लगती है। 

उसके इस प्रयास को देखकर यमराज स्वयं वहां आ पहुँचते है और करवा से कहते है कि तुम्हारे पति की मृत्यु का समय आ चुका है इसलिये तुम यह व्यर्थ प्रयास न करो।  

यह सुनते ही करवा कहती है,  कि  हे यमराज,  यदि मैं अखंड पतिव्रता हूँ, तो आप को मेरे पति के स्थान पर इस मगरमच्छ को अपने साथ यमलोक ले जाना होगा अन्यथा मेरे ताप से मैं आपको भी भस्म कर सकती हूँ।  

यमराज उसका दृढ़ संकल्प देखकर उसके पति को जीवन दान देते है और करवा को अखंड सौभाग्यवती होने का वरदान देते है। 

तभी से कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी के व्रत को करवा चौथ का व्रत कहा जाने लगा और करवा को करवा माता कह कर उनकी भी पूजा की जाने लगी।

सभी स्त्रियां इस दिन करवा माता से प्रार्थना करती है कि हे करवा माता जैसे आपने अपने पति की रक्षा की वैसे ही हमारे पति की भी रक्षा करें।

करवा चौथ की चौथी कथा

एक साहुकार के सात बेटे और एक बेटी थी। वह सात भाईयों की लाडली बहन थी।  वह पहली बार करवा चौथ पर अपने मायके आती है। 

उसने भी अपनी भाभियों के साथ व्रत रखा था।  और वह भी अन्य सुहागन स्त्रियों की तरह चन्द्रमा को अर्घ्य देने से पहले कुछ खा नही सकती थी। 

उसके भाई जब देखते है कि उनकी बहन भूखी है तो उन्हें बड़ा कष्ट होता है।  वह अपनी बहन को भोजन कराने के लिये एक योजना बनाते है।  

उनमें से एक भाई पेड़ पर चढ़ कर टहनियों और पत्तियों के बीच से दीपक दिखाने लगता है।  बाकी के भाई दौड़े-दौड़े बहन के पास जाते है और कहते है कि बहन चंद्रोदय हो गया है अर्घ्य देकर शीघ्र भोजन कर लो। 

भाभियाँ ननद से कहती है कि  अपने भाईयों की बातों में न आये वह झूठ बोल रहे है।  लेकिन वह भाईयों पर विश्वास कर के दीपक को अर्घ्य दे देती है और भोजन करने बैठ जाती है। 
 
पहले ग्रास में उसे छींक आती है और दूसरे ग्रास में बाल निकल  आता है तथा तीसरा ग्रास लेते ही उसके ससुराल से उसके पति की मृत्यु का सन्देश आता है।  

वह बहुत विलाप करती है  और माता गौरी से क्षमा मांगती है।  तब देवी माँ एक साधारण स्त्री के रूप में उसके पास आती है और उससे कहती है, कि  वर्ष भर की सारी चतुर्दशी का व्रत रख तब तेरा पति जीवित हो उठेगा। 

वह ऐसा ही करती है वर्ष भर बाद फिर करवा चौथ का दिन आता है वह उस दिन का व्रत भी नियम के साथ पूरा करती है।

तब देवी माँ प्रसन्न हो जाती है और उसके पति को जीवित कर देती है और उसे सदा सौभाग्यवती होने का आशीर्वाद देती है। 
 
जो भी स्त्री नियम पूर्वक करवा चौथ व्रत का पालन करती है देवी माँ उन सभी को सौभाग्य का आशीर्वाद प्रदान करती है।

करवा चौथ की पूजा कैसे करें?

करवा चौथ के दिन पूजा के लिये एक स्थान स्वच्छ कर लें।  
फिर दीवार पर  शिव जी, माता पार्वती और गणेश जी और कार्तिकेय की आकृति बनाएं  या फिर बाज़ार में बिकने वाले करवा चौथ के चित्र दीवार पर लगा लें।  

चित्र के सामने जमीन पर आटे और हल्दी से चौक पूरे।   

चौक पूरने के लिये आटे और हल्दी की लकीरों से एक चौकोर बनाते है और उसके बीच में भी लकीरे बनाएं जैसे कि चक्र की लकीरे होती है।  

चौक पूरने के बाद इसके ऊपर एक करवा रखें,  टोंटी दार मिट्टी के कलश को करवा कहते है।  

एक जल का लोटा रखें।  

करवे में गेहूँ भर दें और उसका ढक्कन ढक दें, ढक्कन के ऊपर बताशें रख दें।  

इस दिन स्त्रियों को 16 श्रंगार करने चाहिएं  तथा देवी माँ को भी श्रंगार की वस्तुएं चूडियां, बिन्दी, काजल आदि अर्पित करने चाहिएं।  

फिर करवे पर रोली से 13 बिन्दी बनाएं।  

पांच या सात प्रकार के अनाज अलग अलग कटोरियों में भर के पूजा स्थान पर रख लें।  

फिर करवा चौथ की कथा कहे और सुनें।  

चावल के कुछ दाने बायें हाथ में लेकर बैठे और कथा सुनते-सुनते एक-एक दाना जल के लोटे में डालते रहें।  

कथा के बाद जितने दाने बचे उन्हें संभाल कर रख लें।  

फिर लोटे के जल से सूर्य को अर्घ्य दें।  

सन्ध्या काल में पूजा के स्थान पर मिट्टी का दीपक सरसों के तेल से भर कर जलाएं।  

इस दिन हलवा और पूरी बनाएं तथा गणेश जी, शंकर जी, पार्वती जी और कार्तिकेय को हलवा पूरी का भोग लगायें। 

गेहूँ का भरा करवा और हलवा पूरी का बायना अपनी सास को देकर उनका आशीर्वाद लें।  

चंद्रोदय होनें पर चन्द्रमा पूजन करें, पहलें जो चावल सम्भाल कर रखे थे उन्हें चन्द्रमा की ओर छिड़के।  

दीपक से चन्द्रमा की आरती उतारें।  

चन्द्रमा को अर्घ्य देते समय सम्मान से सिर झुका कर अर्घ्य दें चन्द्रमा को अर्घ्य देते समय देखते नही है। 

कहा जाता है कि इससे चंद्र दोष लग जाता है। इसलिये कुछ लोग छलनी में से चन्द्रमा को देखते है।

अर्घ्य देने के बाद सिर झुका कर चन्द्र देव को प्रणाम करें।  

उसके बाद पति को पहले भोजन करा कर फिर पत्नियां भोजन करें। 

करवा चौथ का मह्त्व

करवा चौथ के व्रत का हमारी संस्कृति में बहुत मह्त्व है।  हमारे सभी पर्व रिश्तों को मज़बूत बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते है।  

करवा चौथ पति पत्नी के अटूट रिश्ते का पर्व है।  हमारे धर्म में अग्नि को साक्षी मान कर सात फेरे लेकर जिसे जीवन साथी माना जाता है, उसके साथ सात जन्म का रिश्ता जुड़ जाता है।
  
यह रक्त बंधन से नही बल्कि विश्वास से जुड़ा हुआ रिश्ता हैं।  इस दिन देवी माँ से स्त्रियां जीवन भर सुहागन रहने का आशीर्वाद मांगती है।  

पति इस दिन अपनी पत्नियों को वस्त्र, आभूषण आदि  उपहार रूप में देते है। इस दिन महिलायें नई दुल्हन की भांति सज सँवर कर तैयार होती है और पति पत्नी दोनो ही इस दिन अपने विवाह की यादे ताज़ा करते है।  

इस तरह से यह पर्व लोगो के विवाहित जीवन में फिर से नयापन भर देता है।  बहू के द्वारा सास को पैर छू कर बायना देना सास बहू के रिश्ते में स्नेह का रंग भर देता है। 

अधिकतर यह सवाल नई पीढी के मन में आता है कि  आखिर पत्नी ही पति के लिये व्रत क्यों रखे, पति पत्नी के लिये व्रत  क्यों नही रखे।  

हाँ,यह तो सही बात है।  यह रिश्ता तो दोनो को निभाना चाहिएं।  पर शायद आपने कभी ध्यान दिया हो कि  बाकी के व्रत भी अधिकतर महिलायें ही रखती है।  

पुरुष बहुत कम ही व्रत रखते है।  देखिये इसका मुख्य कारण यह माना जा सकता है कि प्राचीन काल से ही घर की जिम्मेदारियों को दो भागों में बाँटा गया है।  

घर के निर्वाह के लिये धन-अर्जन करने का कार्य पुरुष के हिस्से में और घर के कार्य स्त्री के हिस्से में।  पुरुषों के घर से बाहर रहने के कारण वह व्रत के नियमो का पालन करने में चूक कर सकते है।  

स्त्रियां घर में रहती है इसलिये वह नियमों का पालन भली-भांति कर सकती है। शायद  इसीलिये अधिकतर व्रत  स्त्रियों के लिये ही बने हुए है। 
लेकिन अब समय बदल रहा है स्त्रियां भी पुरुषों के साथ कंधे से कन्धा मिला कर चल रही है।  लेकिन सदियों से चलते हुए संस्कारों के कारण स्त्रियां अब भी पूरी निष्ठा से व्रत रखती है। 

समय के साथ देखने में आया है कि कुछ स्त्रियां आधुनिकता के कारण व्रत नही रखती,  और कुछ पुरुष अपनी पत्नियों को सम्मान देने के लिये करवा चौथ का व्रत रखने लगे है। 

अपनी पत्नियों को सम्मान देना सचमुच प्रशंसनीय है।  बाकी व्रत रखना या न रखना यह आस्था का प्रश्न है इसके लिये किसी को बाध्य नही करना  चाहियें।   





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