बसोड़ा होली के बाद मनाया जाने वाला पर्व है। यह उत्तर भारत के प्रान्तों में अधिक प्रचलित है। इस दिन शीतला माता की पूजा की जाती है। भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में यह पर्व भिन्न-भिन्न दिनों पर मनाया जाता है।
कुछ लोग बसोड़ा होली के बाद आने वाली सप्तमी या अष्टमी के दिन मनाते है। इसलिये इसे शीतला सप्तमी और शीतला अष्टमी भी कहते है। सभी लोग अपने परिवार की परम्परा के अनुसार इसे मनाते है।
कुछ लोग होली के बाद आने वाले सोमवार या बृहस्पतिवार को बसोड़ा पूजन करते है। वैसे होली के बाद पूरे एक महीने शीतला माता की पूजा चलती रहती है।
सब अपने परिवार की परम्पराओं के अनुसार जिस दिन भी पूजा करना सही मानते है, उस दिन ही करते है। इस दिन स्त्रियाँ शीतला माता की पूजा करके अपने बच्चों के लिये आशीर्वाद मांगती है।
शीतला माता का स्वरूप
स्कंद पुराण में शीतला माता के स्वरूप का वर्णन किया गया है। शीतला माता चतुर्भुजा देवी है। इनके हाथों में कलश, झाडू, सूप तथा नीम के पत्ते होते है।
इनका वाहन गर्दभ अर्थात गधा होता है। माना जाता है कि यह देवी बच्चों की चेचक के संक्रमण से रक्षा करती है।
ऋतु परिवर्तन के समय यह संक्रमण फैलने का अधिक खतरा रहता है। इनके हाथों में जो चारों वस्तुएं होती है, वह इस रोग के संक्रमण से बचाव के लिये होती है।
चेचक के रोगी को गर्मी से बचाने के लिये सूप से हवा की जाती है। कलश का जल शीतलता प्रदान करने के लिये है।
झाडू का अर्थ है कि इस समय घर में साफ सफाई का अत्यधिक ध्यान रखें।
नीम के पत्ते रोगी के पास रखने से किटाणु नष्ट होते रहते है। इस प्रकार इन सब वस्तुओं से ही चेचक के रोगियों की चिकित्सा की जाती है।
शीतला माता की कथा
स्कंद पुराण के अनुसार शीतला माता भी आदि शक्ति का एक रूप है। आदि शक्ति जो कि भगवान शिव की शक्ति कही जाती है, उन्ही के अनेको रूपों में से एक है शीतला माता।
पौराणिक कथाओं में ज्वरासुर को इनका साथी बताया जाता है। देवलोक से शीतला माता ज्वरासुर के साथ धरती पर आई थी।
कहा जाता है कि ज्वरासुर की उत्पत्ति भगवान शिव के पसीने से हुई थी। शीतला माता ज्वरासुर के साथ जब धरती पर उतरी तो उनके हाथ में दाल के दाने थे।
वह राजा विराट के राज्य में पधारी। पर विराट ने उन्हें वहां निवास करने की अनुमति नही दी। उनके रूक्ष व्यवहार से माता कुपित हो गई और उस राज्य की समस्त प्रजा के शरीर पर दाल के दानो जैसे लाल दाने उभर आये।
भीषण उष्णता से सबका मुहँ सूखने लगा। तब राजा को अपनी भूल का पछतावा हुआ। राजा ने और प्रजा जनों ने शीतला माता की पूजा की।
सभी लोगो ने माता का क्रोध शान्त करने के लिये कच्चा और ठंडा दूध तथा ठंडी छाछ के द्वारा उनका अभिषेक किया। तभी से प्रतिवर्ष शीतला माता की पूजा करने और ठण्डा भोजन अर्पित करने का प्रचलन प्रारम्भ हुआ।
बसोड़ा पूजन की व्रत कथा
बहुत समय पहले एक गाँव में एक बूढ़ी अम्मा रहती थी। वह हर साल होली के बाद बसोड़ा पूजन करती थी और व्रत रखती थी।
उस दिन वह बासी भोजन ही माता को अर्पित करती थी और खुद भी बासी भोजन ही खाती थी। एक बार किसी कारण उस गाँव में आग लग गई।
पहले गाँव में सारे घर सूखी घास-फूस और खपरैलो से बने होते थे। इस कारण आग शीघ्रता से फैल गई। गाँव के सभी घर जल गए पर उस बूढ़ी अम्मा का घर सुरक्षित रहा।
सब यह देख कर अचरज में पड़ गए। सब उसके घर जा कर पूछने लगे, कि यह चमत्कार कैसे हुआ।
बूढ़ी अम्मा बोली, मैं हर साल बसोड़ा पूजन करती हूँ। शीतला माता की पूजा करती हूँ। उस दिन में चूल्हा नही जलाती हूँ। बासी भोजन ही करती हूँ। उसने सभी गाँव वालो को शीतला माता की महिमा बताई।
फिर गाँव वाले भी हर साल शीतला माता की पूजा और व्रत करने लगे और बसोड़े के दिन उस गाँव में फिर कोई चूल्हा नही जलाता था।
बसोड़ा पूजन विधि
बसोड़ा पूजन के एक दिन पहले रात को ही तैयारी शुरु कर दी जाती है।
रात को महिलायें भोजन आदि रसोई के कार्य से निवृत्त होने के बाद चूल्हा चौका साफ करके अगले दिन के पूजन के लिये भोजन तैयार करती है।
रात को चने की दाल भिगो कर रख दी जाती है। भीगी चने की दाल भी शीतला माता को अर्पित की जाती है।
बसोड़ा पूजन के लिये विभिन्न प्रान्तों में भिन्न-भिन्न प्रकार के व्यंजन बनाए जाते है, जैसे खीर, गुड़ के चावल, पूरी, पुए, मेवे, दही, रबड़ी आदि। लेकिन चने की भीगी दाल चढ़ाने का रिवाज़ सभी जगह है।
बसोड़े वाले दिन सुबह-सुबह स्नान आदि से निवृत्त होकर शीतला माता की पूजा की जाती है।
अधिकतर लोग सूरज निकलने से पहले ही शीतला माता की पूजा करना अच्छा मानते है।
मन्दिर में माता शीतला के स्थान के दोनो ओर हल्दी से स्वास्तिक बनाए।
शीतला माता का थोड़े से दूध मिले जल से अभिषेक करें।
एक गुन्धे आटे का दिया बना कर उसमें घी डाल कर रुई की बाती बना कर लगाये और वह दिया बिना जलाए माता को अर्पित करें।
फिर हल्दी का तिलक, पुष्प, चने की भीगी दाल और भोग अर्पित करें।
कुछ लोग बर्गुलियों की माला भी माता को अर्पित करते है। इसे मन्दिर में अलग स्थान पर रखा जाता है।
मन्दिर से वापिस आते समय जहाँ होली दहन हुआ हो वहां भी भोग और जल चढ़ाया जाता है।
अगर मन्दिर से घर के बीच में एक से ज्यादा होली दहन के स्थान आते है तो सभी स्थानो पर थोड़ा-थोड़ा भोग और जल चढ़ाएं।
जितना भोग थाली में ले कर जाते है, वह सारा चढ़ा कर समाप्त कर देते है। बचा कर घर नही लाते। लोटे में थोड़ा सा जल बचा लेते है।
फिर घर में प्रवेश करने से पहले मुख्य द्वार के दोनो ओर हल्दी से स्वास्तिक बनाए तथा दोनो ओर लोटे का बचा हुआ जल चढ़ा दें।
जो भी भोजन रात को बनाया गया हो, बसोड़े के दिन सब लोग वही खाते है और उसे गर्म नही करते है।
बसोड़ा पूजन का वैज्ञानिक कारण
इस दिन बासी भोजन से पूजा करने की परम्परा है। इस दिन तवा नही चढ़ाया जाता। शीतला माता को बासी भोजन का भोग लगाया जाता है और केवल बासी भोजन ही खाया जाता है।
यह ऋतु परिवर्तन का पर्व है। इस समय सर्दी जा रही होती है और गर्मी आ रही होती है। इसलिये यह दिन ऋतु का ऐसा अन्तिम दिन माना जाता है जब बासी भोजन खाया जा सकता है।
इस दिन के बाद बासी भोजन नही खाया जाता है, क्योंकि गर्मी बढ़ जाती है और भोजन खराब होने लगता है। खराब भोजन खाने से बीमार पड़ने की आशंका बढ़ जाती है। इसलिये इस दिन के बाद बासी भोजन खाना बन्द कर दिया जाता है।
वैसे ये रिवाज़ जब बनाए गए थे तब आबादी कम थी, इसलिये प्रदूषण भी कम था और इसलिये गर्मी भी कम होती थी।
होली और बसोड़ा पूजन के समय तक मौसम में इतनी ठंडक होती थी कि भोजन खराब नही होता था। पर अब तो कई बार मार्च में ही गर्मी चरम पर पहुँच जाती है।
लेकिन इस पर्व से जुड़े हुए व्यंजन इस बात को ध्यान में रखते हुए ही निर्धारित किये गए है। इस दिन सभी अलग-अलग क्षेत्रों से जुड़े हुए लोग अपनी परम्परा के अनुसार जो व्यंजन बनाते है वह सभी व्यंजन ऐसे है जो सामान्य मौसम में एक दिन में खराब नही होते है।
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