क्यों मनाते है महाशिवरात्रि?
महाशिवरात्रि धरती के शिवमयी होने का उत्सव है। वैसे तो शिव शून्य के समान सर्वत्र व्याप्त है पर यह महाशिवरात्रि विशेष रूप से उन्ही के ध्यान का समय है।
महाशिवरात्रि का पर्व प्रतिवर्ष फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को मनाया जाता है।
वैसे तो प्रति माह कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को शिवरात्रि होती है पर महाशिवरात्रि इन सबमें विशेष है, क्योंकि इसी दिन प्रभु शिव प्रथम बार एक ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रकट हुए थे।
महाशिवरात्रि को मनाने का प्रारम्भ कब और क्यों हुआ, यह कथा सभी को अवश्य ही जाननी चाहिएं। इसके पीछे कुछ पौराणिक कथाएं है।
भगवान शिव के प्रथम प्राकट्य की कथा
एक बार विष्णु जी और ब्रह्मा जी के बीच एक विवाद चल रहा था कि उन दोनो में से श्रेष्ठ कौन है। तभी उनके बीच एक बहुत बड़ा अग्नि स्तम्भ प्रकट हो गया। जिसका न आदि दिखाई दे रहा था न अंत।
तब उन दोनो ने आपस में विचार विमर्श कर के यह निर्णय लिया कि विष्णु जी पाताल में उस स्तम्भ का आदि ढूँढेंगे और ब्रह्मा जी आकाश में उसका अंत ढूँढेंगे।
फिर ब्रह्मा जी अपने हंस पर बैठ कर आकाश में उसका अंत ढूंढने उड़ चले और विष्णु जी वराह रूप धारण कर के पाताल में उसका आदि खोजने के लिये धरती के नीचे उतरते चले गए।
काफी समय हो गया आखिर ब्रह्मा जी थक गए और नीचे आ गए, रास्ते में उन्हें केतकी के फूल मिले। ब्रह्मा जी ने उनसे कहा कि मेरी तरफ से बोल कर मुझे इस प्रतियोगिता में विजयी बनाने में सहायता करो।
केतकी के फूलो ने स्वीकार कर लिया। फिर ब्रह्मा जी ने विष्णु जी को बुलाया जो अभी तक उस स्तम्भ का आदि ढूँढ रहे थे।
ब्रह्मा जी ने कहा कि 'हे विष्णु! मैं प्रतियोगिता जीत चुका हूँ मुझे इस स्तम्भ का अंत मिल गया है और इस बात का साक्षी यह केतकी है।'
केतकी ने ब्रह्मा जी की बात पर अपनी सहमति व्यक्त कर दी। तभी वह अग्नि स्तम्भ गायब हो गया और स्वयं शिव भगवान वहाँ प्रकट हो गए। ब्रह्मा जी और विष्णु जी ने उनको प्रणाम किया।
शिव भगवान कुपित होकर बोले, 'हे ब्रह्मा! तुमने देवता होकर आज असत्य का आचरण किया है, मैं तुम्हें श्राप देता हूँ कि भविष्य में कोई भी तुम्हारी पूजा नही करेगा।
फिर भगवान शिव ने केतकी से कहा, 'हे केतकी तुमने जो असत्य आचरण किया है उसके लिये मैं तुम्हें श्राप देता हूँ कि मैं तुम्हारे पुष्पो से की हुई पूजा कभी स्वीकार नही करूंगा।
ब्रहमा जी ने भगवान शिव से अपने अपराध के लिये बहुत क्षमा माँगी। आखिर विष्णु जी ने उनसे प्रार्थना की, कि ब्रह्मा जी को क्षमा कर दें।
तब भगवान शिव ने कहा की भविष्य में तुम्हारी पूजा केवल एक स्थान पर ही होगी।
उनका कथन आज भी सत्य है। केतकी के पुष्पो को कोई शिव भगवान को अर्पित नही करता। तथा ब्रह्मा जी का केवल एक मन्दिर राजस्थान के पुष्कर में स्थित है।
अन्य देवताओं के साथ उनकी पूजा हो जाती है पर केवल ब्रह्मा जी की पूजा आज कोई भी नही करता है।
अग्नि स्तम्भ के रूप में भगवान शिव का यह प्रथम प्राकट्य था। इसीलिए प्रतिवर्ष यह दिन महाशिवरात्रि के रूप में मनाया जाता है।
भगवान शिव के विष पीने की कथा
महाशिवरात्रि के बारे में समुद्र मंथन की कथा भी प्रचलित है। एक बार सभी देवताओं और असुरों ने मिलकर सागर मंथन करने का निर्णय लिया क्योंकि लक्ष्मी जी देवताओं से रुष्ट होकर सागर में चली गई थी।
देवता लक्ष्मी जी को पुन: सागर से प्रकट करना चाहते थे ताकि लक्ष्मी जी की कृपा उन्हें फिर से प्राप्त हो सके। इसके अलवा वह सागर से अमृत भी प्राप्त करना चाहते थे।
उन्होने वासुकी नाग को रस्सी की तरह तथा मन्दराचल पर्वत को रई की तरह प्रयोग किया। वासुकि नाग को मन्दराचल पर्वत के चारों ओर लपेट कर एक ओर से देव और दूसरी ओर से असुर खींचने लगे और मंथन की प्रक्रिया शुरु हो गई।
भगवान विष्णु विशाल पीठ वाले कछुए का अवतार लेकर सागर के तल में बैठ गए। उन्होने अपनी पीठ पर मन्दराचल पर्वत को धारण किया।
समुद्र मंथन से एक के बाद एक अनमोल वस्तुएं निकलती गई, पर अमृत की प्रतीक्षा में मंथन चलता रहा और फिर अचानक सागर से कालकूट विष निकाल आया, जिसके ताप से समस्त संसार जलने लगा।
सभी ने भगवान शिव से प्रार्थना की, कि हे प्रभु शीघ्र कोई उपाय करें, नही तो यह सारा संसार इस विष की विषैली वायु से समाप्त हो जायेगा।
भगवान शिव ने तुरंत उस विष को अपने कण्ठ में समाहित कर लिया, जिसके कारण उनका कण्ठ नीला हो गया। फिर वह मूर्छित हो गए।
उस समय सभी देवताओं ने पूरी रात शंकर भगवान की मूर्छा दूर करने के प्रयास किये। उन्होने ढोल ताशे आदि के स्वरों से भी उनको जागृत करने का प्रयास किया और सुबह होते ही भगवान शिव की मूर्छा दूर हो गई।
सभी बहुत प्रसन्न हुए और तभी से महाशिवरात्रि मनाई जाने लगी। इसीलिये महाशिवरात्रि को रात्रि जागरण किया जाता है और भक्त गण भजन कीर्तन कर के उन्हें प्रसन्न करने का प्रयास करते है।
तभी से उन्हें नीलकंठ भी कहा जाने लगा। उनका कण्ठ नीला हो गया था, क्योंकि उन्होने विष को कण्ठ में ही रोक लिया था।
इसका कारण यह था कि वह नही चाहते थे कि उनके हृदय में वास करने वाले श्री हरि नारायण को विष के कारण कोई कष्ट हो।
कैसी मनोरम भक्ति है। भगवान शिव सदैव श्री हरि नाम का जाप करते है और भगवान विष्णु सदैव शिव भक्ति में रमे रहते है। ये उनकी अद्भुत लीला है।
शिव पार्वती के विवाह का उत्सव
ऐसी भी मान्यता है कि इसी दिन भगवान शिव और माता पार्वती का विवाह हुआ था। इसलिए यह पर्व शिव और पार्वती के विवाह के उत्सव के रूप में भी मनाया जाता है।
64 ज्योतिर्लिंगो का प्राकट्य दिवस
शिव पुराण की कथाओं के अनुसार इसी दिन भगवान शिव के 64 ज्योतिर्लिंग प्रकट हुए थे जिनमें से केवल 12 ज्योतिर्लिंग ही दर्शनीय है, बाकी के ज्योतिर्लिंग अभी तक देखे नही गयें है।
- सोमनाथ ज्योतिर्लिंग - यह गुजरात के सौराष्ट्र में स्थित है।
- मल्लिकार्जुन - यह आन्ध्र प्रदेश में श्री शैल नामक पर्वत पर स्थित है।
- महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग - यह मध्य प्रदेश के उज्जैन में स्थित है।
- ओमकारेश्वर ज्योतिर्लिंग - यह मध्य प्रदेश के इंदौर के पास स्थित है।
- केदारनाथ ज्योतिर्लिंग - यह उत्तराखंड में स्थित है।
- भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग - यह महाराष्ट्र के पुणे में सह्याद्रि पर्वत पर स्थित है।
- काशी विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग - यह उत्तर प्रदेश के काशी में स्थित है।
- त्र्यंबकेश्वर ज्योतिर्लिंग - यह महाराष्ट्र के नासिक में स्थित है।
- वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग- यह झारखण्ड में स्थित है।
- नागेश्वर ज्योतिर्लिंग - यह गुजरात के द्वारिका नामक स्थान पर स्थित है।
- रामेश्वरम ज्योतिर्लिंग - यह तमिलनाडू के रामनाथ पुरम में स्थित है।
- घुश्मेश्वर ज्योतिर्लिंग - यह महाराष्ट्र के दौलताबाद के पास स्थित है।
महाशिवरात्रि व्रत पूजन विधि
पूजन सामग्री:-
पंचामृत के लिये दूध, दही, शहद, गंगाजल और घी, इसके अलावा हल्दी,चंदन, गुड़, बेल पत्र, आक, धतूरा, बेर और अन्य फल।
पूजन विधि:-
महाशिवरात्रि के दिन सुबह उठ कर स्नान आदि से निवृत्त्त होकर व्रत का संकल्प लें। उसके बाद पूजन सामग्री एकत्र करें।
पंचामृत भगवान शिव के अभिषेक के लिये बनाया जाता है। इसके लिये लोटे में एक-एक बूंद घी, शहद, दूध, दही डाल लें और जल भर लें।
पूजा मन्दिर जा कर ही करें तो अधिक अच्छा होगा क्योंकि मन्दिरों में शिव के पूरे परिवार की प्रतिमाये होती है।
अगर आपके घर में सभी प्रतिमाएं मौजूद हो तो घर में भी पूजा की जा सकती है, क्योंकि इस दिन पूरे शिव परिवार की पूजा करनी चाहिएं।
सबसे पहले पंचामृत से शिवलिंग का अभिषेक करें और फिर भगवान शिव, पार्वती, गणेश, कार्तिकेय और नंदी का अभिषेक करें।
उसके बाद साफ जल से शिवलिंग और सभी प्रतिमाओं का जलाभिषेक करें।
फिर शिवलिंग और सभी प्रतिमाओं को हल्दी या चंदन से तिलक करें। फिर धूप और दीप जलाए।
शिव चालीसा का पाठ करें, तथा समस्त शिव परिवार की आरती करें।
फिर उन्हें गुड़, बेल पत्र, आक और धतूरा चढ़ाएं तथा बेर और अन्य फल चढ़ाएं।
फिर शिवलिंग की परिक्रमा करके पूजा सम्पूर्ण करें।
ध्यान रखे कि शिवलिंग की पूरी परिक्रमा नही लगाई जाती है।
इसीलिए सभी मन्दिरों में शिवलिंग के साथ ही नंदी की मूर्ति जुडी होती है, ताकी भूलवश भी कोई पूरी परिक्रमा न लगा पाए।
पौराणिक कथाओं के अनुसार शिव पार्वती का विवाह भी इसी दिन हुआ था।
इसलिये इस दिन सुहागन स्त्रियां माता पार्वती को श्रंगार की वस्तुएं अर्पित करती है और सौभाग्य का आशीर्वाद प्राप्त करती है।
व्रती व्यक्ति इस दिन पूरा दिन उपवास रखते है, रोगी हों तो फलाहार कर सकते है, पर अन्न ग्रहण न करें।
इस दिन ब्रह्मचर्य का पालन करें और ऊँ नम: शिवाय का मानसिक जाप करते रहें।
महाशिवरात्रि पर रात्रि जागरण का मह्त्व
इस दिन रात्रि जागरण का विशेष मह्त्व है। वैसे आमतौर पर सांसारिक लोग दिन भर का ही उपवास और पूजन करते है।
रात्रि जागरण और पूजन अधिकतर वही लोग करते है, जिनके भीतर आध्यात्मिक जिज्ञासाओं को शान्त करने की पिपासा है, या जो लोग सन्यास के मार्ग को चुन चुके है।
वैसे बहुत से गृहस्थ लोग भी विशेष इच्छापूर्ति के लिये रात्रि जागरण और पूजा करते है।
रात्रि के चारो प्रहरोँ में चार बार शिव पूजा का विशेष महत्व है। रात्रि में शिव पुराण, शिव स्तोत्र, या महामृतंजय मंत्र का जाप करते रहें। अगले दिन व्रत का पारण करें ।
वैसे तो पूजन के लिये अनेको सामग्रियों की आवश्यकता होती है पर सत्य तो यह है भक्त जो भी श्रद्धा से अर्पित कर दें भगवान शंकर को स्वीकार होता है। वह तो थोडे में ही प्रसन्न हो जाने वाले देव है।
शिव का चरित्र दर्शन
शिव शंकर अन्धकार के देवता है इसलिए उन्होने अपने प्राकट्य के लिये अन्धकारमयी रात्रि चुनी। कहा जाता है कि महाशिवरात्रि की रात वर्ष की सबसे अन्धेरी रात होती है।
ब्रह्मांड में अनेको आकाशगंगायें है, जिनमें अनेको ग्रह, उपग्रह, तारे आदि है। पर इन सबके अलावा एक अनंत शून्य , एक अनंत अंधकार है जिसकी थाह का पता आज तक कोई नही लगा सका।
यह गहन अंधकार, यह अनंत शून्य ही शिव है और शिव की थाह कोई कैसे जानेगा। वह शून्य की तरह ब्रह्मांड में व्याप्त है तथा भक्ति और आस्था से ही उन्हें जाना जा सकता है।
वह बेल पत्र, आक, धतूरे जैसे जंगली फलो से ही प्रसन्न हो जाते है। हाथो और गले में रुद्राक्ष की मालाएं ही उनके आभूषण है।
कैलाश पर्वत उनका निवास है। उनका यह सादा रूप जीवो को त्याग और अपरिग्रह की शिक्षा देता है।
नागराज वासुकी उनके कण्ठ की शोभा बढ़ाते है। साँप, बिच्छू उनके प्रिय है। नंदी और मूषक राज उनके परिवार के सदस्य माने जाते है और शिव परिवार के साथ उनकी भी पूजा की जाती है।
इस प्रकार उनका जीवन चरित्र हमें हर जीव से प्रेम करना सिखाता है।
एक तरफ वह त्रिशूलधारी है और संहारकर्ता कहलाते है, दूसरी तरफ डमरू वाले भी है। उनका नटराज रूप मानव को कला की ओर आकर्षित करता है।
उन्होने अर्द्धनारीश्वर रूप धारण कर के मनुष्यों को यह समझाने का प्रयास किया है, कि स्त्री और पुरुष दोनो एक दूसरे के पूरक है, और दोनो में से किसी को भी श्रेष्ठतम होने का अभिमान नही करना चाहिएं।
उनके शीश पर चन्द्रमा सुशोभित है। इसलिये उन्हें चंद्रधर या शशिधर भी कहते है। चन्द्रमा शीतलता का प्रतीक है। चन्द्रमा को मस्तक पर धारण कर के वह प्राणियों को मस्तिष्क में चन्द्रमा जैसी शीतलता धारण करने की शिक्षा दे रहे है।
क्योंकि यह तो सभी जानते होंगे कि सही निर्णयों के लिये मस्तिष्क का शीतल होना बहुत आवश्यक है।
उन्होने गंगा को अपनी जटाओं में समाहित किया इसलिये उन्हें गंगाधर भी कहते है।
जब भागीरथी की तपस्या से प्रसन्न होकर माँ गंगा पृथ्वी पर आने के लिये तैयार हुई, तब इस बात की आशंका थी कि उनके वेग से पृथ्वी फट सकती है।
इसलिये भगवान शंकर ने उनके वेग को अपनी विशाल जटाओं में समाहित कर लिया और फिर एक शान्त धारा के रूप में पृथ्वी पर गंगा का आगमन हुआ।
जिस तरह उन्होने गंगा के वेग को अपने वश में किया उसी प्रकार मनुष्य को अपनी शक्तियों को अपने वश में रखना सीखना चाहिएं और उनका सही दिशा में उपयोग करना चाहिये।
उनके तीन नेत्र है इसलिये उन्हें त्रिनेत्र भी कहा जाता है। यह तीसरा नेत्र उनके माथे में आज्ञा चक्र के स्थान पर दर्शाया जाता है।
यह एक तरह से मस्तिष्क का नेत्र है। अपने त्रिनेत्र रूप के द्वारा भगवान शिव ने एक तरह से यह समझाया है कि हर मनुष्य में शिव है।
सभी के पास एक नेत्र और है। जब अपने दोनो नेत्रों को बन्द कर लें तब तीसरा नेत्र खुलता है। अर्थात यह तीसरा नेत्र अपने अंदर झांकने के लिये है।
यह तीसरा नेत्र तभी खुलता है, जब हम अपने दोनो नेत्रों को बन्द कर लें। मतलब यह कि जब संसार से विमुख हो, तभी यह तीसरा नेत्र खुलता है, जो हमें अपनी आत्मा को, स्व को जानने में सहायता करता है।
जो योगी उस स्थिति को प्राप्त कर चुके है, वे ही इसके आनंद को समझ सकते है। उस स्थिति की भक्ति ही मोक्ष का मार्ग निर्धारित करती है।
कहने को भोले शंकर के अनेको नाम है। भक्त चाहें जिस नाम से भी स्मरण कर लें। कहने को पूजा की सामग्रियां भी अनेक है पर भक्त चाहे जो भी श्रद्धा से अर्पित कर दें, वह प्रसन्न हो जाते है।
उनके इसी सरल भाव के कारण वह भोले बाबा कहलाते है।
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