कुम्भ का पर्व हिन्दू धर्म के मुख्य पर्वों में से एक है। कुम्भ पर्व के अवसर पर भारी संख्या में श्रद्धालु उज्जैन, हरिद्वार, प्रयागराज तथा नासिक में स्नान करते है।
इन चारों स्थानो पर कुम्भ पर्व पर बहुत बडा मेला लगता है, जिसे कुम्भ का मेला कहते है। कुम्भ के मेले का योग ज्योतिषीय गणना के अनुसार निर्धारित किया जाता है।
जब सूर्य के मेष राशि में प्रवेश तथा बृहस्पति के कुम्भ राशि में प्रवेश का योग बन रहा होता है, उसी समय में कुम्भ का पर्व मनाया जाता है।
कुम्भ का मेला प्रति 12 वर्ष के बाद आयोजित किया जाता है। प्रति 3 वर्ष के बाद कुम्भ मेला लगता है।
जैसे कि जिस समय प्रयाग में संगम पर कुम्भ मेला लगता है। उसके तीन वर्ष बाद उज्जैन में क्षिप्रा नदी पर , फिर 3 वर्ष बाद नासिक में गोदावरी नदी पर और फिर 3 वर्ष बाद हरिद्वार में गंगा नदी पर।
इस प्रकार हर स्थान पर यह मेला 12 वर्ष में एक बार लगता है। प्रयाग में 6 वर्ष के बाद अर्ध कुम्भ का मेला भी लगता है। उज्जैन और नासिक में सिंहस्थ कुम्भ मेला लगता है। यह मेला तब लगता है जब बृहस्पति सिंह राशि में प्रवेश करते है।
क्षिप्रा नदी तथा गोदावरी नदी सहित भारत की अन्य सभी नदियों को पतित पावनी गंगा का ही स्वरूप माना जाता है, इसलिये इनके स्नान से मोक्ष के द्वार खुल जाते है। तथा महापातक भी धन्य हो जाते है।
कुम्भ का अर्थ घड़ा या कलश होता है। यह पर्व अमृत कुम्भ की कथा से जुड़ा हुआ है। इस पर्व से अमृत कुम्भ की दो कथाएं जुड़ी हुई है।
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कुम्भ की पौराणिक कथाएं
सागर मंथन की कथा
कुम्भ की पौराणिक कथा सागर मंथन से जुड़ी हुई है। इसलिये इसका प्रारंभ ऋषि दुर्वासा से होता है। क्योंकि सागर मंथन का कारण ऋषि दुर्वासा से ही जुड़ा हुआ है।
ऋषि दुर्वासा ने एक बार देखा कि एक दिव्य कन्या एक सरोवर के पास दिव्य पुष्प हार पहन कर बैठी हुई है। वैसे दिव्य पुष्प केवल स्वर्ग में ही सुलभ होते थे। दुर्वासा समझ गए कि यह अवश्य कोई अप्सरा है।
ऋषि दुर्वासा को वह माला बहुत आकर्षक लगी। उन्होने उस अप्सरा से वह माला उपहार में मांग ली। अप्सरा ने सहर्ष सम्मान सहित वह माला ऋषि दुर्वासा को उपहार स्वरूप दे दी।
ऋषि दुर्वासा इन्द्र से मिलने जा रहे थे। उन्होने सोचा कि यह माला इन्द्र को उपहार स्वरूप दूंगा तो वह प्रसन्न होंगे। ऋषि दुर्वासा ने इन्द्रलोक पहुँच कर वह माला इन्द्र को उपहार में दे दी।
इन्द्र के लिये वह माला बिल्कुल भी विशेष नही थी, क्योंकि स्वर्गलोक में ऐसे दिव्य पुष्पों का अम्बार लगा हुआ था। इन्द्र ने हँस कर उपेक्षा पूर्वक वह माला एरावत हाथी के माथे पर रख दी। एरावत ने क्षण भर में उस माला को पैरो से कुचल कर नष्ट कर दिया।
ऋषि दुर्वासा से यह अपमान सहन नही हुआ, इसलिये उन्होने इन्द्र को श्राप दे दिया, कि जिस वैभव पर तुम्हें इतना गर्व है, वह सब नष्ट हो जायेगा।
उनके इसी श्राप के कारण लक्ष्मी देवी देवताओं से रुष्ट होकर स्वर्गलोक को छोड़ कर सागर में विलीन हो गई और स्वर्ग के धन वैभव का लोप हो गया।
स्वर्ग को फिर से समृध्दि युक्त करने के लिये लक्ष्मी को सागर से बाहर लाने की आवश्यकता थी। इसीलिये सागर मंथन किया गया। सागर में अमृत भी था। अमृत के लोभ में असुरो ने भी मंथन में देवताओं का साथ दिया।
सागर में से बहुत सी वस्तुएं निकली। कुछ अन्तराल के पश्चात लक्ष्मी भी प्रकट हुई। परंतु अमृत के लोभ में मंथन चलता रहा। अंत में सागर से अमृत कुम्भ के साथ धनवंतरि प्रकट हुए।
अमृत कुम्भ को देखते ही इन्द्र का पुत्र जयंत उसे लेकर आकाश मार्ग में उड़ भागा। असुरों ने भी जयंत का पीछा किया। देवों और असुरों में भयंकर युद्ध छिड़ गया।
इस युद्ध के दौरान उस अमृत कुम्भ की कुछ बूंदें धरती पर चार स्थानो पर छलक गईं। यह चार स्थान प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन तथा नासिक है। इसलिये इन चारों स्थानो पर कुम्भ का मेला आयोजित होता है।
कहा जाता है कि यह युद्ध 12 दिन तक चला था। इसलिये कुम्भ के स्थान भी 12 माने जाते है। जिनमें से 4 धरती पर तथा 8 स्वर्ग में माने जाते है।
देवताओं का एक दिन मनुष्यों के एक वर्ष के बराबर होता है। इसलिये यह मेला 12 वर्ष में एक बार मनाया जाता है। तथा देवताओं के 12 वर्ष हमारे 144 वर्ष में पूर्ण होते है। देवता 144 वर्ष के अन्तराल पर कुम्भ पर्व मनाते है।
इसलिये पृथ्वी पर हर 144 वर्ष बाद महाकुम्भ का आयोजन होता है। महाकुम्भ का मेला केवल प्रयागराज में ही लगता है क्योंकि यहां तीन पवित्र नदियों गंगा, यमुना और सरस्वती का संगम स्थान है।
गरुण की कथा
कश्यप ऋषि की दो पत्नियां थी कद्रु और विनिता। एक बार उन दोनो में एक विवाद हो गया। कद्रु ने कहा सूर्यदेव के घोड़े की पूंछ काली है और विनिता ने उसे सफेद बताया।
कद्रु ने कहा कि जो गलत निकलेगा वह दूसरे की दासता स्वीकार करेगा। कद्रु ने अपने सर्प पुत्रों को घोड़े की पूँछ से लिपट जाने को कहा।
उसके बाद विनिता ने जब घोड़े को थोड़ा समीप से देखा उसको लगा कि सचमुच घोड़े की पूंछ काली है। इस तरह छल से कद्रु ने विनिता को अपनी दासी बना लिया।
विनिता का पुत्र गरुण जब बडा हुआ तब विनिता ने उसे अपना दुख बताया। उसने कद्रु से अपनी माँ को मुक्त करने का उपाय पूछा।
कद्रु ने गरुण को नागलोक से अमृत कलश लाने को कहा क्योंकि विनिता की यह शर्त थी कि यदि उसके पुत्रों को अमृत कलश मिल जाए तो वह कद्रु को अपनी दासता से मुक्त कर देगी।
गरुण ने अमृत कलश नागलोक से चुरा लिया। इन्द्र को जब पता चला तो उन्होने गरुण का पीछा किया और उन पर चार बार आक्रमण किया। चारो बार अमृत की कुछ बूंदे धरती पर छलक गई। तथा इन्हीं चारों स्थानो पर कुम्भ पर्व मनाया जाने लगा।
कुम्भ का आयोजन
कुम्भ के मेले में स्नान हेतु दूर-दूर से श्रद्धालु गण मेले के स्थान पर एकत्रित होते है। कुम्भ मेले में हमेशा ही इतनी भारी संख्या में लोग पहुँचते है, कि सुरक्षा सम्बन्धी प्रबंध प्रशासन को सम्भालने पड़ते है।
इस पर्व पर स्नान और दान को बहुत पुण्य दायक माना जाता है। इस पर्व पर भारत भर से साधु सन्यासी कुम्भ स्नान के लिये पहुँचते हैं।
इसीलिये यहां कुम्भ मेले में भारी भीड़ पहुँचती है, ताकि स्नान के पुण्य के साथ ही इन सिद्ध साधु महात्माओं के दर्शनों का भी लाभ मिल जाए।
कुम्भ मेले में स्नान के लिये वर्ष के यह दिन अधिक विशेष माने जाते है -
मकर संक्रांति, मौनी अमावस्या, महाशिवरात्रि, बसंत पंचमी, माघी पूर्णिमा, चैत्र शुक्ल प्रतिपदा तथा रामनवमी।
मान्यता है कि इन विशेष दिनो में स्नान करके अपने जीवन को भक्ति के मार्ग पर लगाने वाले मनुष्यों के सभी पाप माँ गंगा की कृपा से नष्ट हो जाते है।
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