सीता नवमी प्रतिवर्ष वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की नवमी को मनाई जाती है। सीता जी को लक्ष्मी जी का अवतार माना जाता है।
वाल्मिकी जी ने रामायण में इनकी जीवन गाथा का वर्णन किया है। इनकी जीवन कथा इतने सारे आश्चर्यों से भरी हुई है, कि जो किसी मनुष्य के जीवन में सम्भव नही है।
इसलिये इनके अवतार रूप होने में शंका का कोई स्थान ही नही है।
इसे प्रभु लीला न कहें तो क्या कहें, कि श्री राम और सीता जी, दोनो का ही अवतार नवमी तिथि को ही हुआ था।
चैत्र शुक्ल नवमी तिथि को राम नवमी का उत्सव मनाया जाता है, तथा वैशाख शुक्ल नवमी सीता नवमी या सीता जयंती के उत्सव का दिवस है।
माता सीता को धरती की पुत्री कहा जाता है। क्योंकि वह धरती से उत्पन्न हुई थी। उनके जन्म की कथा इस प्रकार है।
सीता जी के जन्म की कथा
यह उनके जीवन से जुड़ा प्रथम आश्चर्य है कि राजा जनक को माता सीता शैशव काल में धरती के नीचे से एक कलश में जीवित अवस्था में मिली थी।
एक बार राजा जनक के राज्य में भयंकर अकाल पड़ा। तब राजा जनक ने इस समस्या का कोई उपाय करने के लिये ऋषि मुनियों से परामर्श किया।
उन्होने राजा जनक से कहा कि यदि वह स्वयं खेत में हल चलाये तो वर्षा होगी। राजा जनक सहर्ष हल चलाने के लिये तैयार हो गए।
जब वह एक खेत में हल चलाने लगे तो उनका हल किसी धातु से टकराया। उन्होने उस स्थान को खोदा तो वहां एक कलश मिला जिसमें एक नवजात कन्या थी। राजा जनक ने स्नेहपूर्वक कन्या को अपनी पुत्री मान लिया।
सीता के भूमि से उत्पन्न होते ही वर्षा देवी मुक्त हृदय से मिथिला पर अनुगृहीत हो गई, तथा मिथिला अकालमुक्त होकर फिर से हरा-भरा हो गया।
हल की फाल से धरती पर बनी गहरी लकीर को सीता कहते है, इसलिये कन्या का नाम सीता रखा गया। जनक की पुत्री होने के कारण सीता जी को जानकी भी कहा जाने लगा।
सीता नवमी की व्रत कथा
बहुत समय पहले एक गाँव में देवदत्त नामक ब्राह्मण रहता था। उसकी पत्नी का नाम शोभना था। वह एक व्याभिचारिणी स्त्री थी।
उसके पापाचार के कारण एक दिन गाँव में आग लग जाती है, तथा वह ब्राह्मणी उस अग्नि में जल कर समाप्त हो जाती है।
उसका पुनर्जन्म एक चान्डाल के घर होता है। अपने पूर्व जन्मों के कर्मों के फल स्वरूप इस जन्म में वह अंधी और कुष्ठ रोग से ग्रस्त होती है।
वह दर-दर भटक कर भिक्षा के सहारे किसी तरह अपना भरण-पोषण कर रही थी। एक बार वह कई दिन से भूखी-प्यासी होती है, पर उसे कोई कुछ नही देता।
वह भटकते हुए एक दिन कौशलपुरि पहुँच गई। वह वहां भोजन के लिये दीन-हीन होकर गुहार लगाती हुई जा रही थी।
वह एक सहस्त्र पुष्प सज्जित स्तंभों से गुज़रती हुई स्वर्ण भवन में चली जाती है। वह दिन वैशाख शुक्ल नवमी का था।
एक व्यक्ति उसे देख कर कहता है, कि 'अरे, तुम्हे ज्ञात नही है, कि आज सीता नवमी है। आज यहां सभी ने माता सीता का व्रत रखा हुआ है।
आज अन्न का भोजन नही किया जाता। इसलिये आज यहां भोजन नही मिलेगा। कल सुबह व्रत का पारण करके सभी लोग भोजन करेंगे, तभी तुम्हे भी भोजन मिलेगा।
फिर उस भक्त ने उसे तुलसी और जल प्रदान किया। उस स्त्री ने तुलसी और जल ग्रहण कर लिया। परन्तु कई दिन की असह्य भूख-प्यास के कारण वह कुछ क्षणो में मृत्यु को प्राप्त हो गई।
सीता नवमी के दिन पूरा दिन भूखे रह कर शाम को तुलसी और जल ग्रहण करने से उसका सीता नवमी का व्रत पूरा हो गया।
मृत्यु के समय सीता नवमी के व्रत के प्रताप से उसके पूर्व जन्मों के सभी पाप कट गए, तथा वह स्वर्ग को प्राप्त हुई।
अगले जन्म में वह कामरूप देश के राजा जयसिंह की महारानी बनी। उसका नाम कला था। इस जन्म में उसे सद् बुद्धि प्राप्त हुई।
उसने अनेको पुण्यकार्य किये, मन्दिरों का निर्माण कराया तथा भगवान राम और सीता जी की पूजा करते हुए जीवन व्यतीत किया।
सीता नवमी की पूजा कैसे करें
इस दिन सुबह-सुबह घर को स्वच्छ कर लें।
फिर पूजा के स्थान पर राम तथा सीता का दरबार बनाया जाता है।
एक पाट पर लाल कपडा बिछा लें तथा चारों ओर 4 या 8 स्तम्भ लगा लें।
पाट पर राम और सीता जी की मूर्ति या चित्र स्थापित करें।
उनकी धूप और दीप से आरती वन्दना करें।
राम चालिसा तथा सीता चालिसा का पाठ करें।
उन्हें पीले पुष्प, फल आदि चढ़ाएं।
माता सीता को श्रंगार की वस्तुएं अर्पित करें।
इस दिन व्रती व्यक्तियों को अन्न ग्रहण नही करना चाहिये।
अगले दिन सुबह व्रत का पारण कर के अन्न ग्रहण करें।
सुहागन स्त्रियां सीता जी का व्रत कर के उनसे सौभाग्य तथा सन्तान का आशीर्वाद प्राप्त करती है।
सीता जी का जीवन चरित्र
सीता जी और राम जी को भगवान विष्णु और देवी लक्ष्मी का अवतार माना जाता है।उन्होने साधारण मानव के रूप में अवतार धारण कर के मनुष्य जीवन के लिये वह आदर्श प्रस्तुत किये, जो एक साधारण मानव को साधारण से उत्तम की ओर तथा उत्तम से सर्वोत्तम तथा सर्वश्रेष्ठ की ओर ले जाते है।
उनका जीवन चरित्र एक विद्यालय की भांति है, जिसे जानकर हम सीख सकते है कि हमें अपने जीवन को किस प्रकार जीना चाहियें। पर समाज में एक भ्रांति है।
राम को तो हम मर्यादा पुरुषोत्तम राम के साथ एक वीर, निडर योद्धा के रूप में भी जानते है। परंतु सीता का चरित्र चित्रण केवल एक पतिव्रता, सुशील तथा अबला स्त्री के रूप में किया जाता है।
सीता के जीवन से जुड़ी बहुत सी कथाएं यह प्रमाणित करती है, कि सीता को ठीक से जानना अभी बाकी है।
सीता स्वयंवर
राजा जनक ने यह निर्णय लिया कि जो भी शिव धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ा सके, उसी वीर से सीता का विवाह होगा। भगवान शिव ने अपना पिनाक धनुष देवताओं को दिया था और देवताओं ने वह धनुष जनक के पूर्वज देवरात को दिया था।तभी से वह धनुष जनक का कुल का धनुष कहलाता था। उसे एक बड़ी पहियों वाली चौकी पर रखा जाता था, जिसे एक स्थान से दूसरे स्थान तक सरकाने के लिये कई सैनिक लगते थे।
एक बार सीता ने खेल-खेल में उस धनुष को उठा लिया। यह देख कर जनक समझ गए कि यह कोई साधरण कन्या नही है। इसीलिये उन्होने सीता के विवाह के लिये ऐसी शर्त रखी, ताकि सीता को योग्य वर मिल सके।
यह वही धनुष था जिसे रावण हिला भी नही पाया था। कितनी अजीब बात है, कि महाबलशाली रावण उस सीता का हरण कर के ले गया, जो उस धनुष को नही उठा पाया था जिस धनुष को सीता बचपन में ही उठा लेती थी। इसे माता सीता की लीला न कहे तो क्या कहे।
सीता का अग्नि प्रवेश
कहा जाता है कि वनवास के दौरान माता सीता ने अग्नि में प्रवेश किया था। और अग्नि से केवल उनकी छाया बाहर आई थी। यह राम और सीता की अगली लीला की योजना थी।रावण ने सीता की इसी छाया का अपहरण किया था। माना जाता है कि असली सीता का अपहरण वह नही कर सकता था। अगर रावण ने असली सीता को छू लिया होता तो वह तुरंत भस्म हो जाता।
सीता ने क्यों ली तिनके की ओट
अशोक वाटिका में सीता हमेशा एक तिनका अपने पास रखतीं थीं। जब भी रावण उनके पास आता तो वह तिनके की ओट ले लेती थी और रावण पर अपनी दृष्टि नही डालती थी। इसका भी एक कारण था।जैसा कि रिवाज़ है कि नव विवाहितायें पहली बार ससुराल में कोई मीठा व्यंजन बनाती है, सीता जी ने भी विवाह के उपरांत पहली बार ससुराल में खीर बनाई।
जब उन्होने दशरथ जी को खीर परोसी तो उनकी दृष्टि खीर में गिरे एक तिनके पर पड़ गई। सीता जी ने तिनके को घूर कर देखा तो वह तिनका तुरंत भस्म हो गया।
यह दृश्य कोई नही देख पाया, पर दशरथ ने देख लिया। दशरथ समझ गए कि उनकी बहू कोई साधारण स्त्री नही है। उन्होने सीता जी से कहा कि दुबारा कभी किसी को घूर कर मत देखना।
सीता जी ने ससुर की यह बात गांठ बांध ली। इसीलिये उन्होने अशोक वाटिका में कभी रावण पर सीधी दृष्टि नही डाली। नही तो रावण का अंत करने के लिये श्री राम को कुछ करने की आवश्यकता ही नही पड़ती।
सीता जी की हनुमान जी से प्रथम भेंट
हनुमान जी रामायण के वह पात्र है जो रावण और उसकी पूरी सेना का अंत करने के लिये अकेले ही काफी थे।जब हनुमान जी राम का सन्देश लेकर लंका में सीता जी के पास आये तो उन्होने सीता जी से कहा कि मैं आप को अभी अपने साथ श्री राम के पास ले जा सकता हूँ। पर सीता इस बात पर सहमत नही हुई।
क्योंकि मर्यादा की रक्षा के लिये यह धर्मयुद्ध होना आवश्यक था। सीता के अलावा रावण के पास और भी बहुत से बँधक थे। जिनकी स्वतन्त्रता के लिये यह युद्ध आवश्यक था। सीता अकेले बंधनमुक्त नही होना चाहती थी।
सीता की अग्नि परीक्षा
रामायण के अनुसार वनवास के समय सीता ने अग्नि प्रवेश किया और तब से सीता अग्नि में विराजमान थी, तथा उनकी छाया मात्र ही राम के साथ थी।उसी छाया का रावण ने अपहरण किया था। इसलिये युद्ध के उपरांत सीता जी की छाया ने फिर से अग्नि प्रवेश कर के अपना स्वरूप प्राप्त किया।
इसी घटना के बारे में कहा जाता है कि सीता को अग्नि परीक्षा देनी पड़ी। हो सकता है कि अग्नि परीक्षा के उल्लेख का यह अर्थ हो कि सीता जी को बहुत सी कठिनाइयों से गुज़रना पड़ा।
जैसे कि कई बार हम लोग जीवन में आने वाली विषम परिस्थितियों से लड़ने को अग्नि परीक्षा की उपमा देते है।
कुछ लोग राम और सीता को साधारण मानव मानते हुए यह कहते है कि राम ने सीता की अग्नि परीक्षा ले कर अन्याय किया, तथा यह भी कहते है, कि सीता को अग्नि परीक्षा नही देनी चाहिये थी वगैरह-वगैरह।
सोचने वाली बात यह है, कि जब वह साधारण मनुष्य थे, तब तो सीता जी को अग्नि परीक्षा में जल कर भस्म हो जाना चाहिये था।
तो बुद्धिजीवियों को एक विचार पर टिकने की आवश्यकता है। अगर वह यह मानते है कि राम और सीता साधारण मानव थे तो उन्हें यह भी मानना होगा कि सीता की अग्नि परीक्षा नही हुई।
और अगर वह ऐसा मानते है, कि सीता ने अग्नि परीक्षा दी थी तो उन्हें यह भी मानना पड़ेगा कि वह साधारण मनुष्य नही थी।
सीता धरती की गोद में क्यों समाई
राम और सीता ने जीवन भर धर्म के पालन के लिये कठिनाईयाँ उठाई। राम राज्य के बाद एक बार फिर राम और सीता को अपने धर्म के मार्ग पर एक नई अग्नि परीक्षा देनी पड़ी।राम ने राज धर्म से विवश हो कर सीता को वनवास दे दिया। सीता उस समय गर्भवती थी यह किसी को मालूम नही था। सीता ने पति के धर्म पालन में उनका साथ दिया।
वनवास का समय सीता ने ऋषि वाल्मीकि जी के आश्रम में व्यतीत किया। वहीं उन्होने लव और कुश को जन्म दिया। जब लव कुश बड़े हुए तो उन्होने राम के द्वारा आयोजित यज्ञ का अश्व पकड़ लिया।
जिसके कारण श्री राम से ही उनका युद्ध हो गया। तब सीता जी ने उन्हें बताया कि वह उनके पिता है।
पिता और पुत्रों का मिलन करवाने के बाद सीता जी का धरती पर आने का उद्देश्य पूरा हो चुका था। वह भूमि पुत्री थी। भूमि से ही उनकी उत्पत्ति हुई थी। इसलिये उनके लिये भूमि ने अपनी गोद में स्थान बनाया।
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