वट सावित्री व्रत सुहागन स्त्रियां पति तथा संतान के सुख के लिये रखती है। इस पर्व की तिथियों में थोड़ी भिन्नता पाई जाती है।
दक्षिण भारत में यह पर्व ज्येष्ठ मास की शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी से पूर्णिमा तक मनाया जाता है, तथा उत्तर भारत में कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी से अमावस्या तक मनाया जाता है।
इस पर्व में वट तथा देवी सावित्री की पूजा की जाती है। वट-वृक्ष संस्कृत में बरगद के पेड़ को कहते है। अब जानते है कि देवी सावित्री कौन है।
देवी सावित्री कौन है?
देवी सावित्री ब्रह्मा जी की पत्नी है। इनके अलावा पौराणिक ग्रंथों में ब्रह्मा जी की चार और पत्नियों का उल्लेख मिलता है। गायत्री, सरस्वती, मेधा तथा श्रद्धा।
देवी सावित्री से जुड़ी हुई एक कथा भी है। एक बार ब्रह्मा जी ने पुष्कर नामक स्थान पर यज्ञ का आयोजन किया। यज्ञ में पति और पत्नी का साथ बैठना आवश्यक होता है।
यज्ञ प्रारंभ करने का समय हो चुका था किन्तु देवी सावित्री यज्ञ स्थल पर नही पहुँची। ब्रह्मा में जी ने अधिक विलम्ब होते देख कर गायत्री नामक कन्या से विवाह कर लिया। तथा देवी गायत्री को साथ बैठा कर यज्ञ प्रारंभ कर दिया।
तभी देवी सावित्री वहां पहुँच गई और ब्रह्मा जी के इस कृत्य पर क्रोधित होकर उन्होने ब्रह्मा जी को श्राप दिया कि उनकी कभी कहीं पूजा नही होगी।
सभी देव गणो ने देवी से ब्रह्मा जी को क्षमा कर देने के लिये कहा। फिर देवी सावित्री ने कहा कि ब्रह्मा जी की पूजा केवल पुष्कर में होगी। उसके अलावा अन्य देवो के साथ ही उनकी पूजा होगी पर अकेले उन्हें कोई नही पूजेगा।
एक पौराणिक कथा के अनुसार भगवान शंकर ने भी ब्रह्मा जी को ऐसा श्राप दिया था। वट सावित्री व्रत में ब्रह्मा जी की पूजा देवी सावित्री के साथ होती है।
वट सावित्री व्रत कथा
एक समय की बात है, मद्र देश नामक राज्य में अश्वपति नामक राजा का शासन था, उनके कोई सन्तान नही थी।
उन्होने संतान प्राप्ति के लिये देवी सावित्री की 18 वर्ष तक पूजा तथा यज्ञ किया, तथा प्रतिदिन यज्ञाग्नि में एक लाख आहुतियां मंत्र उच्चारण के साथ समर्पित करते रहे।
उनकी कठिन साधना से प्रसन्न हो कर देवी सावित्री ने उन्हें दर्शन दिये तथा एक पुत्री रत्न का वरदान दिया। कुछ समय पश्चात राजा के घर में एक तेजस्वी पुत्री का जन्म हुआ।
देवी सावित्री के वरदान से प्राप्त इस कन्या का नाम सावित्री रखा गया। युवावस्था में पहुंचने पर वह कन्या अति रूपवान हो गई।
एक बार शाल्व देश के राजा द्युमत्सेन के पुत्र सत्यवान को देख कर वह उस पर मुग्ध हो गई, तथा उनसे विवाह करने का निर्णय ले लिया।
राजा द्युमत्सेन का राज-पाठ एक युद्ध में छिन चुका था। तथा उनकी और उनकी पत्नी की आंखो की रोशनी भी खो चुके थे। वह बहुत दरिद्रता में समय व्यतीत कर रहे थे। सत्यवान लकड़हारे का काम कर के घर की गुजर बसर चलाता था।
राजा अश्वपति को यह बात पता चली तो उन्होने सावित्री को समझाने का प्रयास किया, परन्तु वह नही मानी।
तभी नारद जी राजा अश्वपति के पास पहुँचे और उन्होने बताया कि सत्यवान विवाह के एक वर्ष पश्चात मृत्यु को प्राप्त हो जायेगा इसलिये अपनी कन्या का विवाह उससे न करें।
अश्वपति यह सुनकर अपनी कन्या के लिये बहुत चिंतित हुए तथा सावित्री को बहुत समझाया, मगर सावित्री अपने निर्णय पर अडिग रही।
आखिरकार दुखी मन से राजा अश्वपति ने सावित्री का विवाह सत्यवान से सम्पन्न करवा दिया। सावित्री विवाह के पश्चात मन लगा कर अपने पति तथा सास-ससुर की सेवा करने लगी।
धीरे-धीरे समय बीतने लगा। एक वर्ष बीतने वाला था। नारद जी ने जिस दिन सत्यवान की मृत्यु बताई थी वह दिन आने वाला था। नित्य की भांति सत्यवान लकड़ी काटने चल पड़ा। पर उस दिन सावित्री भी उस के साथ चली गई।
सत्यवान एक वट-वृक्ष पर चढ़ कर लकड़ियां काट रहा था। तभी उसके सिर में भयंकर पीड़ा होने लगी। वह उसी वट-वृक्ष के नीचे सावित्री की गोद में सिर रख कर लेट गया।
कुछ ही देर में यमराज वहां पधारे तथा सत्यवान के प्राणों को साथ लेकर चल पड़े। सावित्री उनके पीछे-पीछे चलने लगी।
यमराज सावित्री की पति परायणता देख कर बोले, पुत्री कुछ मांग लो और लौट जाओ। सावित्री ने अपने पति के प्राण मांगे। यमराज ने कहा कि कुछ और मांग लो।
सावित्री ने अपने अन्धे सास-ससुर के लिये आँखें मांग ली। यमराज जी ने तुरंत तथास्तु कह कर उसकी इच्छा पूरी कर दी और चल पड़े।
पर सावित्री अब भी पीछे-पीछे चल रही थी। यमराज जी ने पुन: कहा कि तुम्हें कुछ और चाहिये तो मांग लो पर लौट जाओ।
सावित्री ने पुन: पति के प्राण मांगे, पर यमराज ने कहा कि कुछ और मांग लो। सावित्री ने अपने सास-ससुर का खोया हुआ राज्य मांग लिया।
यमराज जी ने वह भी उसको प्रसन्नता से दे दिया। परंतु सावित्री अब भी यमराज जी के पीछे-पीछे चलती रही। यमराज जी ने कहा अब तुम मेरे पीछे-पीछे नही चल सकती।
तुम्हें संसार के नियम का पालन करना होगा, मैं तुम्हें अन्तिम बार कहता हूँ , पति के प्राणों के अलावा एक वरदान और मांग लो उसके बाद मैं यहाँ से यमलोक को प्रस्थान करूँगा।
सावित्री ने उनके चरण छू कर पुत्रवती होने का आशीर्वाद मांगा। यमराज बोले, पुत्रवती भव और चल पड़े। सावित्री बोली एक पतिव्रता स्त्री कैसे पुत्रवती होगी जब उसके पति को आप ले जा रहे है।
यमराज जी सावित्री से बहुत प्रसन्न हुए तथा उन्होने सत्यवान को पुनर्जीवन दे दिया। वह दोनो अपने घर लौटे तो देखा, कि उनका राज्य उन्हें मिल गया है और सत्यवान के माता-पिता की आँखें भी लौट आई है।
फिर उन्होने शेष जीवन सुख पूर्वक व्यतीत किया। जो भी स्त्रियां वट सावित्री की यह कथा सुनती है और व्रत करती है। उन्हें सदा सौभाग्यवती होने का आशीर्वाद प्राप्त होता है।
वट सावित्री व्रत तथा पूजा विधि
पूजा सामग्री: - जल का कलश, दो बाँस की टोकरी, रोली, मौली, कच्चा सूत, धूप, दीप, पुष्प, भीगे काले चने।
सबसे पहले सुबह घर को जल से स्वच्छ कर के स्नान आदि से निवृत्त हो। मिट्टी से ब्रह्मा जी, देवी सावित्री, सत्यवान तथा सावित्री की सांकेतिक मूर्तियाँ बना लें।
फिर बाँस की दो छोटी टोकरी लें।
दोनो टोकरियों में रेत भर लें।
एक टोकरी में ब्रह्मा जी तथा देवी सावित्री की मूर्ति स्थापित करें।
दूसरी टोकरी में सत्यवान तथा सावित्री की मूर्ति स्थापित करें।
दोनो टोकरियाँ बरगद के पेड़ के नीचे रख दें।
फिर पहले धूप, दीप जला कर ब्रह्मा जी और माता सावित्री को तिलक और पुष्प अर्पित करके उनकी पूजा करें।
फिर सत्यवान और सावित्री की पूजा करें।
फिर वट वृक्ष की जड़ो में पानी दें, तथा वृक्ष के चारो ओर कच्चे सूत को लपेटते हुए तीन बार परिक्रमा लगायें।
फिर वही बैठ कर भीगे चने हाथ में लेकर कथा सुने।
पूजा समाप्ति के बाद काले चनो का बायना निकाल कर साथ में भोजन पकवान आदि बना कर बहुएँ अपनी सास को बायना दें।
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