बैसाखी भारत का प्रसिद्ध पर्व है। इसका प्राचीन नाम वैशाखी है। इसे मेष संक्रांति भी कहते है। यह पर्व वैशाख मास में आता है। इस माह में आकाश में विशाखा नक्षत्र स्थित होता है, इसलिये इस माह को वैशाख कहते है। वैशाख में जिस दिन सूर्य देव मेष राशि में संचरण करते है उस दिन को मेष संक्रांति या वैशाखी संक्रांति कहते है। वैशाखी का अपभ्रंश शब्द बैसाखी है।
बैसाखी हिंदुओ और सिखो का विशेष पर्व है। भारत के अधिकतर पर्वों की तरह यह पर्व भी कृषि से सम्बंधित है।
यह नई फसल की खुशी से जुड़ा हुआ त्यौहार है। यह समय रबी की फसल की कटाई का समय होता है। इस समय पूरे उत्तर भारत में गेंहू, तिलहन और गन्ने की कटाई का कार्य पूरा हो चुका होता है। इसी खुशी में यह उत्सव मनाया जाता है।
नई फसल की खुशी में यह त्यौहार विभिन्न स्थानो पर भिन्न-भिन्न नामों से मनाया जाता है, जिसकी चर्चा हम आगे करेंगे। आइए पहले हम यह जानते है कि हिन्दू धर्म तथा सिख धर्म में बैसाखी का क्या महत्व है।
हिन्दू धर्म में बैसाखी का मह्त्व
हिन्दू धर्म की पौराणिक कथाओं के अनुसार वैशाख की मेष संक्रांति के दिन माँ गंगा का नदी रूप में धरती पर अवतरण हुआ था।
इसी दिन भागीरथी की तपस्या से प्रसन्न होकर माँ गंगा ने धरती पर आना स्वीकार किया था। इसलिये हिन्दू धर्म में इस पर्व का विशेष मह्त्व है।
इस दिन गंगा स्नान करने का बहुत पुण्य माना जाता है। इसलिये इस दिन हरिद्वार, ऋषिकेश तथा जहाँ-जहाँ भी गंगा की धारा बहती है, वहां स्नान करने के लिये लोगो का तांता लगा रहता है।
जहाँ अन्य नदियां बहती है, वहाँ भी लोग गंगा का स्मरण करके स्नान कर लेते है। सभी गंगा घाटों पर इस दिन मेले लगते है। तथा दूर-दूर से श्रद्धालु स्नान करने के लिये यहाँ एकत्रित होते है।
सिख धर्म में बैसाखी का मह्त्व
यह पर्व सिख धर्म का सबसे विशेष पर्व है। सिख धर्म के अनुयायियों के लिये यह पर्व बहुत महत्वपूर्ण है।
सन 1699 में सिखों के दसवे गुरु गोविंद सिंह जी ने वैशाखी अर्थात मेष संक्रांति के दिन ही खालसा पंथ की स्थापना की थी। उस वर्ष में वैशाखी 13 अप्रैल को थी।
तभी से सिख धर्मावलंबी प्रतिवर्ष 13 अप्रैल को ही वैशाखी मनाते है और पंजाब की बोली के अंतर के कारण वहाँ इसे बैसाखी कहते है।
मेष संक्रांति वह समय होता है जब सूर्य मेष राशि में संचरण करता है। यह समय हर वर्ष एक जैसा नही रहता। इसलिये बैसाखी कभी 13 अप्रैल को और कभी 14 अप्रैल को मनाई जाती है।
सिख इसी दिन से अपना नव वर्ष मनाते है। पंजाब में यह पर्व सबसे अधिक धूमधाम से मनाया जाता है।
खालसा पंथ क्यों बना?
मुगल आक्रमणकारी औरंगजेब के समय में भारतीयों पर अत्याचार चरम सीमा पर पहुँच गया था।
जो भी मुगलों की दासता स्वीकार नही करता था उसे मौत के घाट उतार दिया जाता था। औरंगजेब ने गुरुतेग बहादुर के भी प्राण ले लिये।
वह शहीद हो गए परंतु उसके सामने झुके नही। इस घटना के बाद गुरु गोविंद सिंह जी ने खालसा पंथ की स्थापना की। खालसा पंथ का उद्देश्य था अन्याय के विरुद्ध जम कर टक्कर लेना।
उन्होने निर्णय लिया कि अब किसी निर्दोष की गर्दन नही कटेगी। और अत्याचारियों को ईंट का जवाब पत्थर से मिलेगा।
खालसा पंथ के नीति नियम
गुरु गोविंद सिहं ने खालसा पन्थ के लिये कुछ नीति और नियमो का निर्माण किया। उन्होने खालसा पंथ के सैनिको के लिये पांच ककार अनिवार्य किये जिनमें केश, कृपाण, कच्छा, कड़ा, कंघा शामिल थे।
केश और कृपाण सिख धर्म से पहले ही जुड़े हुए थे गुरु गोविंद सिंह जी ने कच्छा, कड़ा और कंघा जोड़ कर पांच ककार को मह्त्व दिया।
गुरु गोविंद सिंह जी का असली नाम गुरु गोविंद राय था। पर उन्होने खालसा पन्थियों को शेर की संज्ञा दी और उनके नाम के साथ सिंह लगाना अनिवार्य किया और इसकी शुरूआत उन्होने अपने नाम के साथ सिंह लगा कर की।
गुरु गोविंद सिंह ने गुरु पद्धति को समाप्त कर दिया और गुरुगद्दी का अधिकार केवल गुरुग्रंथ साहिब को दिया। गुरु गोविंद जी ही सिख धर्म के अंतिम गुरु थे।
पाँच प्यारे
उन्हें खालसा पंथ के उद्देश्य को पूरा करने के लिये कुछ ऐसे वीरों की आवश्यकता थी जो जान हथेली पर रख कर अन्याय के विरुद्ध संघर्ष कर सके।
उन्होने अपने लोगो के बीच घोषणा की कि मुझे तुम्हारे शीश चाहिएं। जो भी शीश दे सके वो आगे आये।
तब दयाराम नाम का एक व्यक्ति सबसे पहले आगे आया। गुरु जी उसे अपने साथ अंदर ले गए। कुछ देर बाद सबने देखा की अंदर से रक्त की धारा बहती हुई आ रही है।
सब लोग सहम गए। गुरु जी बाहर आये और बोले मुझे ओर सिर चाहिये। तब धर्म दास आगे आये गुरुजी उन्हें भी अंदर ले गए और लोगो ने रक्त बहता देखा।
फिर हिम्मत राय, मोहकम चंद और साहिब चन्द एक-एक करके आगे आये। उन्हें भी एक-एक करके गुरुजी अंदर ले गए और सब ने रक्त धारा बहती हुई देखी।
फिर गुरुजी बाहर आये और साथ में वह पाँचों भी आये। असल में गुरुजी ने बकरो की बलि दी थी। यह सब गुरुजी ने उनकी परीक्षा के लिये किया था।
बाद में उन पाँच लोगो को गुरुजी ने पाँच प्यारों का नाम दिया तथा उनके नाम के साथ सिँह जोड़ दिया।
सिख बैसाखी कैसे मनाते है?
इस दिन गुरद्वारों को विशेष रूप से सजाया जाता है। सभी सिख समुदाय के लोग अरदास के लिये गुरुद्वारों में एकत्र होते है।
सुबह 4 बजे गुरुग्रंथ साहिब को सम्मान पूर्वक कक्ष से बाहर लाया जाता है। फिर दूध और जल से उन्हें साकेंतिक स्नान कराया जाता है।
फिर गुरू ग्रंथ साहिब को तख्त पर बैठाया जाता है।
उसके बाद पंच प्यारो द्वारा पंच बानी गाई जाती है। उसके बाद अरदास की जाती है।
दोपहर में गुरु को कड़ा प्रसाद का भोग लगाया जाता है। एक बड़े कड़ाह में आटे का स्वादिष्ट हलवा बनाया जाता है जिसे कड़ा प्रसाद कहते है।
उसके बाद सभी लोगो को लंगर खिलाया जाता है।
इस दिन गुरद्वारों में सारा दिन शबद कीर्तन चलता रहता है।
जगह-जगह जुलूस निकाले जाते है और नगर कीर्तन किये जाते है।
इस दिन पंजाब में बहुत से स्थानो पर मेलो का आयोजन होता है।
पंजाब के गांवों में रात को लोग आग जला कर नई फसल के कुछ दाने अग्नि को समर्पित करते है और नई फसल की खुशियां मनाते है।
सभी लोग भांगड़ा और गिद्धा कर के अपनी खुशी जाहिर करते है। भांगड़ा और गिद्धा पंजाब के पारम्परिक नृत्य है।
विभिन्न स्थानो पर बैसाखी
- केरल में यह पर्व विशु के नाम से मनाया जाता है। यहाँ विशु कानी सजाई जाती है। तथा सुबह उसके दर्शन किये जाते है। केरल में इस दिन से नव वर्ष का प्रारंभ माना जाता है।
- उत्तराखंड में बिखोरी उत्सव मनाया जाता है। इस दिन नदियों में स्नान करने की परम्परा है।
- असम में इसे रंगोली बिहू या बोहाग बिहू कहते है। यहाँ भी इसी दिन से नव वर्ष की शुरूआत मानी जाती है।
- उड़ीसा में इसे महा विषुव संक्रांति कहते है। तथा इस दिन नव वर्ष का स्वागत नृत्य और गायन के आयोजन द्वारा करते है।
- पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा और बांग्ला देश में इसे पाहेला बेषाख कहते है। तथा यहाँ इस दिन मंगल शोभा यात्रा निकाली जाती है।
- तमिलनाडू में इसे पुत्थांडु कहते है। यहाँ भी यह नव वर्ष के पहले दिन के रूप में मनाया जाता है।
- बिहार और नेपाल में यह पर्व जुरशीतल के नाम से मनाया जाता है। यहाँ चने के सत्तू और जौ के आटे के व्यंजन बनाने की परम्परा है।
- पंजाब का जो हिस्सा विभाजन के बाद पाकिस्तान के अधिकार क्षेत्र में शामिल हो गया। वहाँ इस दिन जुलूस आदि निकालने की अनुमति नही दी जाती और न ही इस दिन कोई अवकाश रखा जाता है। वहाँ पर सिख समुदाय के लोग केवल गुरुद्वारों में ही इस पर्व को मना सकते है।
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